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Thursday, May 17, 2018

राजस्थान में क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम

राजस्थान में क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम

    क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम
    सुखा संभावित क्षेत्र विकास कार्यक्रम:-
        यह सन् 1974-75 में शुरू किया गया।
        इसमें केन्द्र व राज्य सरकार की 50: 50 की भागीदारी हैं।
        इस योजना का मुख्य उद्देष्य सूखे की सम्भावना वाले क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था में सुधार करना हैं।
        मिट्टी व जल का संरक्षण करना हैं।
        जल संसाधनों का विकास करना हैं।
        वृक्षारोपण पर बल देना हैं।
        यह योजना वर्तमान में चल रही हैं।
        11 जिलों में संचालित हैं:-
    1. अजमेर 2. कोटा 3. बांरा 4. टोंक
    4. झालावाड़ 5. उदयपुर 6. डुंगरपुर 7. बांसवाड़ा
    8.सवांईमाधोपुर 9. भरतपुर 10. करौली।
    इस योजना में जलग्रहण क्षेत्र के सर्वांधिक विकास करने पर सर्वांधिक बल दिया गया, जो ग्रामीण स्तर पर शुरू की गई थी।
    मरू विकास कार्यक्रम (1977-78):-
        सन् 1985-86 तक इसका खर्च केन्द्र व राज्य के बीच विभाजित किया गया था।
        इसके बाद सन् 1986 में इसका खर्च केन्द्र सरकार वहन करने लगी।
        यह योजना 16 जिलों में संचालित हैं, जो सभी पष्चिमी राजस्थान व दक्षिणी राजस्थान के हैं।
        उदयपुर, सिरोही, राजसमंद, पाली, बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, नागौर,
        चुरू, झुन्झनु, सीकर, बीकानेर, अजमेर, जयपुर, गंगानगर और जालौर में यह योजना संचालित हैं।
        यह योजना राष्ट्रीय कृषि आयोग की सिफारिष पर शुरू की गई थी।
        इस योजना का कार्य निम्न हैं:-
        पशुपालन, भेड़पालन, सामाजिक वानिकी (सार्वजनिक), कृषि वानिकी।
        लघु सिंचाई योजनाओं का विकास करना।
        ग्रामीण विद्युतीकरण पर बल।
        मरूस्थलीकरण को रोकना।
    जनजाति क्षेत्र विकास कार्यक्रम (1992-93):-
        इसकी शुरूआत सन् 1992-93 में जो 1974-75 की जनजाति उपयोजना का दूसरा रूप हैं।
        इसका उद्देष्य जनजाति क्षेत्र का विकास करना हैं। जो राजस्थान की कुल जनसंख्या का 12.6 % (अनुसूचित जनजाति) हैं।
        यह योजना उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, सिरोही व चित्तौड़गढ़ में चलाई गई।
    सहरिया विकास कार्यक्रम:-
        सन् 1977-78 में केन्द्र सरकार द्वारा राजस्थान के लिए सहरिया क्षेत्र के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया गया।
        बांरा के शाहबाद व किषनगंज में सहरियों की जनसंख्या सर्वांधिक हैं।
        कृषि, पशुपालन, सिंचाई, वानिकी, षिक्षा, पोषण, कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना व उनको शोषण से बचाना।
        सहरियों का कंुभ सीताबाड़ी बांरा में भरता हैं।
    परिवर्तित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण (माड़ा) :-
        यह योजना सन् 1978-79 में शुरू की गई।
        यह योजना आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रो तथा बिखरी हुई जनजातियों के लिए हैं, जो संबंधित जिले में बिखरी हुई हैं।
        अलवर, धौलपुर, सवांईमाधोपुर, कोटा, बूंदी, झालावाड़, टोंक, जयपुर, सिरोही, पाली, उदयपुर, चित्तौड़गढ़ में संचालित की जा रहीं हैं।
        इस योजना के अन्तर्गत शैक्षणिक विकास पर सर्वांधिक ध्यान दिया गया हैं।
        बिखरी जनजातियों के लिए विकास कार्यक्रम सन् 1979 में शुरू किया गया।
        इस कार्यक्रम का संचालन जनजाति क्षेत्र विकास विभाग के द्वारा किया जाता हैं।
        इसके अन्तर्गत लड़कियों के लिए छात्रावास, निःषुल्क षिक्षा, छात्रवृत्ति, परीक्षा-पूर्व प्रषिक्षण संस्थान संचालित किये जाते हैं।
    जनजाति अनुसंधान संस्थान:-
        यह उदयपुर में हैं, जो केन्द्र व राज्य के 50: 50 की भागीदारी से संचालित हैं।
    रूख-भायला कार्यक्रम (वृक्ष-मित्र कार्यक्रम):-
        यह सन् 1986 में राजीव गांधी के द्वारा डुंगरपुर जिले मंे शुरू किया गया।
        सन् 2001 में गांधी ग्राम योजना शुरू की गई।
        गंगानगर जिले को छोड़कर राज्य की सभी पंचायत समितियों में आदर्ष ग्राम गांधी ग्राम का चयन किया जायेगा।
        इस योजना का मुख्य उद्देष्य पंचायत स्तर पर जल-ग्रहण क्षेत्र का विकास करना हैं।
    पुष्कर गैप परियोजना:-
        यह कनाड़ा की सहायता से पुष्कर झील को स्वच्छ सुन्दर बनाने के लिए चालाई गई योजना हैं। जो सन् 1997-98 में शुरू की गई थी।
    मेवात क्षेत्र विकास कार्यक्रम:-
        यह अलवर, भरतपुर क्षेत्र में सामाजिक-आर्थिंक विकास के लिए सन्1987-88 में संचालित योजना हैं।
    डांग क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम:-
        कंकरीला, पथरीला, अनुउपजाऊ क्षेत्र डांग कहलाता हैं।
        रेबारी जाति अकाल के समय ‘डांग’ जाते हैं।
        सन् 1994-95 मे सवांईमाधोपुर, धौलपुर, करौली, बूंदी, कोटा, बांरा, झालावाड, भरतपुर आदि आठ जिलो में यह कार्यक्रम संचालित हैं।
        उद्देष्य:- इस क्षेत्र का आर्थिंक-सामाजिक विकास करना, डाकुओं से मुक्ति दिलाना व पर्यावरण का विकास करना हैं।
        कंदरा प्रभावित क्षेत्र हैं।
    मगरा क्षेत्र विकास कार्यक्रम (2005 – 06):-
        अरावली का केन्द्रीय मध्य भाग मगरा क्षेत्र कहलाता हैं।
        इसके अन्तर्गत पाली, राजसमंद, अजमेर का दक्षिण भाग, चित्तौड़गढ़, सिरोही आदि जिले आते हैं।
        इस योजना का उद्देष्य आर्थिंक, सामाजिक विकास करना हैं।
    सहकारी आन्दोलन:-
        सहकारिता विषय राज्य सूची का हैं।
        सहकारिता का उदय जर्मनी में हुआ हैं।
        राज्य स्तर पर विधानसभा (विधानमण्डल) में राज्यपाल के द्वारा सहकारिता का ज्ञान रखने वाले कुछ व्यक्तियों का मनोनयन किया जाता हैं।
        विधानपरिषद् के 1ध्6 सदस्यों को राज्यपाल मनोनीत करता हैं। (राजस्थान में 66 सदस्य होगें)
        साहित्य, कला, विज्ञान, समाजसेवा व सहकारिता का ज्ञान रखते हैं।
        सहकारिता का मूल सिद्धांत ‘एक सबके लिए सब एक के लिए’।
        सहकारिता के ध्वज का रंग सतरंगी (इंद्रधनुषी) होता हैं।
        सन् 1904 में पहली बार भारत सरकार ने सहकारी समिति अधिनियम बनाया।
        जिसके अनुसार कम से कम 10 व्यक्तियों के द्वारा सहकारी समिति गठित की जा सकती हैं।
        राजस्थान में सहकारिता आंदोलन की शुरूआत सर्वप्रथम अजमेर से सन् 1904 में हुई तथा 1905 में अजमेर में प्रथम सहकारी समिति गठित की गई।
        राज्य स्तर पर पहला सहकारी कृषि बैंक भरतपुर (डीग) में सन् 1904 में स्थापित हुआ।
        व्यापक स्तर पर भरतपुर में 1915, कोटा में 1916, बीकानेर मंे 1920, अलवर में 1935, जयपुर व जोधपुर में 1943 में सहकारिता से संबंधित कानून बनाए गए।
        सहकारिता संबंधित पहला अधिनियम भरतपुर में लागू किया गया।
        सम्पूर्ण राजस्थान के लिए पहला सहकारिता अधिनियम सन् 1953 में लागू किया गया। जिसमें सन् 1965 में संषोधन हुआ। यह 2001 तक लागू रहा।
        2001 में नया सहकारिता अधिनियम बनाया गया जो 13 नवम्बर, 2002 को लागू हुआ।
    राज्य स्तर पर सहकारी संस्थाओं का वर्गीकरण
    राज्य सहकारी बैंक:-
        यह सहकारिता की सर्वोच्च संस्थ हैं, जो केन्द्रीय सहकारी बैंक व रिर्जव बैंक के बीच बड़ी के रूप में कार्य करता हैं।
    केन्द्रीय सहकारी बैंक:-
        यह राज्य सहकारी समितियों/बैंक व सहकारी समितियों के बीच कड़ी के रूप में कार्य करती हैं।
    सहकारी समितियां:-
        ये पंचायत स्तर पर होती हैं।
        ये दो भागों में विभाजित हैं।
        ग्रामीण प्राथमिक सहकारी समितियां।
        शहरी प्राथमिक सहकारी समितियां।

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