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Thursday, May 17, 2018

राजस्थान के प्रमुख शासक


प्रतिहार वंष के प्रमुख शासक
नागभट्ट प्रथम:-

    इन्होने अपनी राजधानी मण्डौर से हटाकर मेड़ता की।
    इन्होने अरबों को परास्त किया था।
    ग्वालियर प्रषस्ति में इन्हे नारायण की उपाधि दी गई थी।

नागभट्ट द्वितीय:-

    इन्होने पाल प्रतिहार और राष्ट्रकूट के त्रिकोणीय संघर्षं में कन्नौज में भाग लिया था।

मिहिर भोज:-

    इन्हे ‘आदि वराह’ और ‘प्रभास’ की उपाधियों से सुषोभित किया गया था।
    यह वैष्णव धर्म के अनुयायी थें।
    इन्ही के समय अरबी यात्री सुलेमान आया था।
    इन्होने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को पराजित किया था।
    इन्होनें चांदी के सिक्के चलायें जिन्हे ‘द्रम्म’ कहा जाता था।

महेन्द्रपाल प्रथम:-

    प्रसिद्ध कवि ‘राजषेखर’ इनके दरबारी कवि थें।
    राजषेखर ने कर्पूरमंजरी, हरविलास, विद्वषःष्लाका की रचना की।
    इन्होने राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय को परास्त किया। कवि राजषेखर ने इस काल को अमर बना दिया। इन्हीं के शासनकाल में प्रतिहार वंष की अभूतपूर्व उन्नति हुई।

महिपाल:-

    राजषेखर थोड़े समय के लिए इनके शासनकाल में भी रहें।
    इन्हीं के शासनकाल में बगदाद निवासी अलमसूदी आया था
    इनके समय में गुर्जर साम्राज्य का तन प्रारम्भ हुआ था।

प्रतिहारों की उपलब्धियां:-

    प्रतिहार विष्णु, षिव, शक्ति के उपासके थें।
    इन्होने खुजराहों के मंदिरों का निर्माण किया।
    राजस्थान में भी इन्होने मन्दिर बनवाए।
    ओसियां का जैन मन्दिर प्रतिहारों की देन हैं।

प्रतिहार वंष की महत्वपूर्ण विभूतियां:-

    राजषेखर
    कवि पम्पा (तमिल कवि तमिल रामायण के रचियता)
    जैन आचार्य जिनसेन

राठौड़ वंष का इतिहास

    राठौड़ शब्द राष्ट्रकूट से बना हैं, जो दक्षिण की एक जाती थी।
    राठौड़ वंष की नींव राव सीहा ने 13 वी संदी में रखी थी।
    बीठ षिलालेख के अनुसार पाली एवं उसके आसपास का क्षेत्र राठौड़ों का राज्य था।
    मुहणोत नैणसी राठौड़ों को कन्नोज के शासक जयचन्द गहड़वाल का वंषज मानते हैं।
    मुख्यतः राठौड़ी राज राजस्थान के उत्तर-पष्चिम भाग में था।


जोधपुर के राठौड़:-
राव चुड़ा:-

    वीरमदेव के पुत्र थे। इन्होने मण्डोर दुर्ग जीता और जोधपुर में राठौड़ वंष की नीवं डाली।

रणमल:-

    यह चुड़ा के ज्येष्ठ पुत्र थे लेकिन चुड़ा ने अपना उत्तराधिकारी रणमल को न बनाकर कान्हा को बनाया।
    जिससे रणमल नाराज होर मेवाड़ के राणा लाखा की सेवा में चला गया।
    रणमल ने अपनी बहन हंसाबाई का विवाह राणा लाखा से किया।
    रणमल की हत्या महाराणा कुम्भा ने सन् 1438 में की थी।

रावजोधा (1438-1489 ई.):-

    यह रणमल के पुत्र थे।
    इन्होने 1459 ई. में चिड़ियाटुक की पहाड़ी पर जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़) का निर्माण करवाया।

मालदेव (1531-62):-

    इनके पिता गांगदेव थे।
    इनकी माता सिरोही के देवड़ा शासक जगमाल की पुत्री थी।
    इनकी पत्नी उमादे (रूठी राणी) जैसलमेर के शासक लुणकरण की पुत्री थी, शादी के दिन से ही आजीवन तारागढ़ (अजमेर) में रहीं।
    मालदेव ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा का साथ दिया था।
    मालदेव का राज्याभिषेक 1531 ई. में हुआ था।
    फारसी इतिहासकार इसे ‘हषमतवाला राजा’ कहते थें।
    हुँमायू मालदेव के समकालीन थे।
    1544 ई. में गिरी सुमेल (अजमेर) में मालदेव व शेरषाह सूरी के मध्य युद्ध लड़ा गया जिसमें शेरषाह सूरी विजय रहा
    ‘‘मैने एक मुठ्ठीभर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादषाहत को दाव पर लगा दिया।’’ यह कथन शेरशाह सूरी का है जो गिरी सुमेल/जैतारण के युद्ध के दौरान कहा था।

साहेबा का युद्ध (बीकानेर):-

    यह युद्ध 1541 ई. में मालदेव के विष्वसनीय सेनानायक कुपा व बीकानेर के शासक जैतसी के मध्य हुआ, जिसमें जैतसी शहीद हुए।
    इस युद्ध का वर्णन जैतसी रां छंद (बीठू सूजा) कृति में मिलता हैं।

मालदेव की उपाधियाँ:-

    इन्होने पोकरण का किला मालकोट (मेड़ता) और सोजत (पाली) का किला बनवाया।
    यह साहित्य के महान संरक्षक थे।
    मलदीव के समय में प्रमुख कृति लघुस्तवराज लिखी गयी।
    इसके समय में जिन प्रमुख ग्रन्थों की रचना हुई वे थे आषा बारहठ के गीत, आसिया के दोहें, ईष्रदास के सोरठें, रत्नसिंह की बेली (जीवनी बेली विगत)
    मालदेव के समय में स्थापत्यकला पर कुंभा (मेवाड़) और मुगलषैली का प्रभाव था।
    साहित्यार इसे हिन्दु बादषाह कहते हैं।
    अबुल फजल ने ‘आइने अकबरी’ में इसी भूरी-भूरी प्रषंसा की हैं।

चन्द्रसेन (1562-81):-

    इसे मारवाड़ का महाराणाप्रताप भी कहा जाता हैं।
    इसने सन् 1562 में जोधपुरी गद्दी संभाली थी।
    चन्द्रसेन ने अकबर की आधीनता कभी स्वीकार नहीं की।
    अकबर से 18 वर्षों तक जोधपुर की रक्षा की

नाड़ोल (पाली) का युद्ध:-

    चन्द्रसेन व राम के मध्य हुआ, जिसमें चन्द्रसेन विजय रहें।
    चन्द्रसेन ने रामदेव को सोजत की जागीर दी।
    सन् 1570 में अकबर ने नागौर दरबार आयोजित किया, जिसमें सभी राजाओं को आमंत्रित किया गया।
    चन्द्रसेन भी उपस्थित हुए लेकिन उन्होने अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की व जोधपुर छोड़र भद्राजुण (जालौर) चले गए।
    अकबर ने खानें कला भद्राजूण पर आक्रमण के लिए भेजा तो चन्द्रसेन यहां से सिवाणा चले गए। चन्द्रसेन आजीवन जालौर की पहाड़ियों में छुपते रहे और अन्त में इन्हे एक राठौर सरदार बैरसल ने 1581 ई. में जहर दे दिया।

मोटा राजा उदयसिंह (1583-95):-

    यह मालदेव के पुत्र थें। यह प्रथम राठौड़ शासक था जिसने मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थें।
    उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानबाई (जगतगुसाई) का विवाह सलीम से किया था।

महाराजा जसवंत सिंह (1638-78):-

    इनका राजतिलक आगरा मंे हुआ था।
    इन्हें शाहजहां ने ‘‘महाराजा’’ की उपाधि दी थी।
    मुहणोत नैणसी इनके दरबारी कवि थें।
    जसवंतसिंह ने भाषाभूषण ग्रन्थ की रचना की थी।
    इनकी मृत्यु अफगानिस्तान के जामरूद नामक स्थान पर हुई थी।
    इनकी मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा कि ‘‘आज कूफ्र (धर्म विरोधी) का दरवाजा टूट गया’’।

अजीत सिंह (1679-1724 ईं):-

    अजीतसिंह जसवंतसिंह के पुत्र थे।
    वीर दुर्गादास राठौड़ ने इन्हे औरंगजेब की जेल से मुक्त करवाया एवं जोधपुर का शासक बनाया था।
    अजीतसिंह साहित्यकार थे। इन्होने ‘‘अजीत चरित्र’’ ‘‘गुणसा निर्वाण दूहा’’ की रचना की थी।
    अजीतसिंह ने मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थे।
    फर्रूखसियर से अपनी पुत्री इन्द्रकंवर का विवाह किया था।
    अजीतसिंह का स्थापत्य:- फतहमहल (जोधपुर), घनष्यामजी का मन्दिर (जोधपुर), जसवंतथड़ा (राजस्थान का ताजमहल)

महाराजा मानसिंह (1803-1843 ई.):-

    इनका राज्याभिषेक 1803 ई. में हुआ था।
    इन्हे गौरख सम्प्रदाय के गुरू ‘आयसदेवनाथ’ के आर्षिवाद से जोधपुर की गद्दी मिली थी।
    मानसिंह ने जोधपुर में नाथ सम्प्रदाय की स्थापना की।
    इन्होने जोधपुर में महामंदिर का निर्माण करवाया, जो नाथ सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं।

बीकानेर के राठौड़
राव बीका (1465-1504 ई.):-

    इन्होने 1465 ई. में बीकानेर की नींव रखी थी। यह राव जोधा के पुत्र थे। किले की नींव 1468 ईं. में रखी थी।

राव लुणकरण:-

    इन्होने नागौर के शासक मोहम्मद खां को हराया था। इन्हे ‘‘कलियुग का कर्ण’’ कहा जाता हैं।

राव जैतसी:-

    यह बीकानेर के प्रतापी शासक थे। इनके समय में 1541 ईं. में साहेबा का युद्ध हुआ था।
    इस युद्ध में मालदेव ने आक्रमण किया था एवं नेतृत्व कुंपा ने किया, इसमे जैतसी वीरगती को प्राप्त हुए।
    इस युद्ध का वर्णन जैतसी रा छंद (बीठूसूजा) में किया गया हैं।

रावकल्याण:-

    1570 ईं. मे अकबर ने नागौर में दरबार लगाया। राव कल्याणमल ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली।

रायसिंह (1574-1612):-

    इनका राज्याभिषेक 1574 ईं. में हुआ था।
    1572 ईं. में अकबर ने इन्हे जोधपुर का शासन दिया। इन्होने महाराज, महाराजाधिराज जैसी उपाधियां धारण की।
    यह गुजरात अभियान में अकबर के साथ थे। सिरोही (सुल्ताभ) व जालौर (ताजखां) अभियान का नेतृत्व रायसिंह ने किया था।

काबुल का विद्रोह:-

    1580ई. में काबुल अभियान मंे अकबर ने मिर्जा हकीम के विद्रोह को दबाने के लिए रायसिंह को भेजा, रायसिंह विजयी रहें।
    1585 ई. में बलुचियों का विद्रोह दबाने के लिए रायसिंह को भेजा गया तथा उन्हे सफलता मिली।
    अकबर ने खुष होकर इन्हे भटनेर की जागीर प्रदान की।
    रायसिंह साहित्य व कला के संरक्षक थे। इसने रायसिंह महौत्स, ज्योतिषरत्नमाला नामक ग्रंन्थों की रचना की। ये अकबर व जहांगीर के समकालीन थे।
    रायसिंह ने बीकानेर के सुदृढ़ किले का निर्माण करवाया और हंसी के किले के अन्दर राजप्रषस्ति लिखवाई।

महाराजा कर्णंसिंह (1631-1669 ई.):-

    औरंगजेब ने इन्हें जांगलधर बादषाह की उपाधि प्रदान की।
    कल्पद्रुभ व कर्णभुषण नामक ग्रन्थों की रचना की।

महाराजा अनुपसिंह (1669-98 ई.):-

    इन्हे औरंगजेब ने महाराजा की उपाधि दी।
    इन्हे ‘महीभरातिव’ क उपाधि भी दी गई, दक्षिण विजय के उपलक्ष्य में।
    अनुपसिंह विद्वान एवं कूटनितिज्ञ थें। इन्होने अनुपविवेक, कामप्रबोध, अनुपोदय ग्रंन्थों की रचना संस्कृत में की थी।
    अनुपविलास भी इन्हीं की पुस्तक हैं।
    सूरतसिंह ने ईस्ट इण्डिया कंपनी से संधि की थी।

चैहान वंष
अजमेर/षाकम्बरी के चैहान:-

    चैहानों का मूल स्थान जांगलदेष में सांभर के आसपास का क्षेत्र था।
    गुर्जरों के पतन के बाद चाहमान का उत्कर्षं हुआ।
    जयानक (पृथ्वीराज विजय) के अनुसार चैहान सूर्यवंषी थें।
    आबू षिलालेख के अनुसार ये चन्द्रवंषी थे।
    कर्नल टाॅड के अनुसार ये विदेषी थे।
    चन्द्रबरदायी के अनुसार चैहान अग्निवंषी थे।
    इनकी प्रारम्भिक राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी।
    ‘हर्षनाथ’ चैहानों के कुलदेवता हैं।

शाकम्बरी के चैहान:-
वासुदेव चैहान:-

    बिजौलिया षिलालेख के अनुसार यह चैहानवंष का संस्थापक था।
    वासुदेव ने शाकम्बरी चैहान वंष की नींव रखी, जिन्होने सांभर झील का निर्माण करवाया।

विग्रहराज द्वितीय:-

    इन्होने चालुक्य शासक मूलराज को कर देने के लिए विवष किया।
    इनके शासन की जानकारी हर्षनाथ का षिलालेख से मिलती हैं।

अजमेर के चैहान:-
अजयपाल:-

    अजमेर में चैहान वंष की नींव 1113 ईं. में अजयपाल ने रखी थी। इन्होने अजमेर दुर्ग बनाया एवं चांदी के सिक्के चलाए, जिन पर ‘‘श्री अजयदेव’’ अंकित हैं।

अर्णोंराज:-

    यह अजयपाल के पुत्र थे। इनके समय में तुर्कों का केन्द्र अजमेर था।
    तुर्कों व अर्णोंराज के बीच कई युद्ध हुए जिसमें अर्णोंराज विजय रहें।
    अजमेर में अर्णोंराज ने आनासागर झील का निर्माण करवाया, पुष्कर में वराह मन्दिर का निर्माण करवाया।

विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव):-

    इनको कविबांधव के नाम से जाना जाता हैं।
    यह विद्वानों के आश्रयदाता थें।
    अजमेर में संस्कृत पाठषाला बनवाई।
    जिस पर हरकेली (षिव, पार्वती) नाटक सामदेव लिखवाया (सरस्वती कंठाभरण)।
    इसी पाठषाला को तुड़ाकर कुतुबुद्दीन ऐबक ने अढ़ाई दिन का झोपड़ा बनवाया। यहां ढ़ाई दिन का उर्स लगता हैं।
    इन्होने अजमेर में बीसलसागर बांध बनवाया।

पृथ्वीराज द्वितीय

    सोमेष्वर

पृथ्वीराज तृतीय:-

    इनका जन्म 1166 ई. में हुआ था। यह सोमेष्वर व कर्पूरीदेवी की संतान थे।
    इनका राज्याभिषेक 1178 ई. में हुआ था।
    इन्होने दिग्विजय अभियान चलाया एवं साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई।


नागार्जुन के विद्रोह का दमन:-

    अपने चचेरे भाई नागार्जुन के विद्रोह को दबाया।
    इन्होने 1182 ई. में भण्डनायकों के विद्रोह का दमन किया। यह एक मध्यएषिया की जाति थी जिसने पंजाब (सतलज) क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था।

महोब विजय:-

    महोब के राजा परमार्दिदेव के सेनानायक आल्हा व उदल ने सेना का नेतृत्व किया था।
    1186 से 1191 तक पृथ्वीराज ने गौरी को कई बार परास्त किया।

तराइन का युद्ध (करनाल, हरियाणा) (1191):-गौरी एवं पृथ्वीराज तृतीय के मध्य हुआ
तराइन का युद्ध (1192):- गौरी एवं पृथ्वीराज तृतीय के मध्य हुआ।

    पृथ्वीराज को इतिहास में रायपिथौरा भी कहा जाता हैं। यह विद्वानों का आश्रयदाता था।
    प्रमुख विद्वान जयानक, जनार्दन, वाग्ष्विर, चन्द्रबरदाई।

पृथ्वीराज रासों के अनुसार पृथ्वीराज चैहान ने गौरी को 23 बार पराजित किया। चन्द्रबरदाई पृथ्वीराज के सच्चे मित्र थें। इन्होने पृथ्वीराज को शत्रु से दूरी बताने के लिए कुछ शब्दभेदी श्लोक बोला जो निम्न हैं:-
‘‘आंठ बांव बत्तीसगज अंगुल अष्ट प्रमाण’’
इन्ही के समय में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिष्ती भारत आए थे।
रणथम्भौर के चैहान:-

    रणथम्भौर मे चैहानवंष की नींव पृथ्वीराज तृतीय के पुत्र गोविन्दराज ने रखी थी।

हम्मीरदेव:-

    हम्मीर हंस वंष के प्रतापी शासक थे एवं जैत्तसिंह के पुत्र थे।
    जैत्तसिंह ने परमार, मुसलमान को परास्त किया था।
    हम्मीर के शासन की जानकारी हम्मीर महाकाव्य सुर्जनचरित से मिलती हैं। इनकी जानकारी हम्मिररासों (जोधराज), हम्मिरहठ (चन्द्रषेखर) से मिलती हैं।
    हम्मीर ने भी दिग्विजय अभियान अपनाया। रणथम्बौर की सीमाओं का विस्तार किया। माण्डलगढ़ से कर वसूल किया।
    चित्तौड़, आबु, चम्पा क्षेत्र विजय कियें

हम्मीर/अलाउद्दीन खिलजी:-

    हम्मीर ने खिलजी के सेनानायक मुहम्मदषाह को शरदण दी थी।
    1299 इं. में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनापति उलगु खां व नुसरत खां के साथ सेनाएँ भेजी।
    इन्होनें झाँइन तक तो अधिकार कर लिया, लेकिन रणथम्भौर को नहीं जीत सकें।
    इस अभियान में नुसरत खां की मृत्यु हो गई एवं उलुग खां वापस चला गया।
    इस युद्ध में पारिब और गरगच यन्त्रों का प्रयोग किया गया।
    अलाउद्दीन खिलजी ने छल-कपट से हम्मीर के सेनापति रतिपाल व रणमल को अपनी तरफ मिला लिया। 11 जुलाई, 1301 को रणथम्भौर का युद्ध हुआ। जिसमें खिलजी विजयी रहें।
    इतिहास का प्रथम शाका हम्मीर की पत्नी रंगदेवी ने किया जो जलजौहर था।

जालौर के चैहान (सोनगरा चैहान):-

    जालौर में चैहान वंष की नींव किर्तीपाल ने रखी थी।
    यह राजस्थान के दक्षिण-पष्चिम में हैं।
    इसका प्राचीन नाम जाबलीपुर हैं।
    अलाउद्दीन खिलजी ने इसका नाम जलालाबाद रखा।

कान्हड़देव और खिलजी

    जालौर और सल्तनत की जानकारी कान्हड़देव प्रबन्ध में तथा तारिख-ए-फरिष्ता से मिलती हैं।
    1297 ई. में कान्हड़देव एवं अलाउद्दीन खिलजी के मध्य युद्ध लड़ा गया। इसमें कान्हड़देव विजयी हुये। इस युद्ध का वर्णन मकराना षिलालेख में मिलता हैं।
    1305 ईं. में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनानायक मुल्तानी को जालौर पर आक्रमण केलिए भेजा। लेकिन मुल्तानी एक चतुर सेनानायक था। उसने कान्हड़देव को खिलजी की अधीनता स्वीकार करने के लिए मना लिया। कान्हड़ेदव जब खिलजी के दरबार में उपस्थित हुआ तो अलाउद्दीन खिलजी ने उसका सम्मान नहीं किया और कान्हड़देव युद्ध की चुनौती देकर वहां से चला गया।
    1311 ई. में कान्हड़देव व खिलजी के मध्य युद्ध हुआ जिसमें खिलजी विजय हुआ। इस युद्ध का वर्णन कान्हड़देव प्रबन्ध में मिलता हैं।
    मुहणोत नैणसी इस युद्ध का कारण बीरमदवे और फिरोजा के प्रेम प्रसंग को बताया हैें।
    1308 ई.में जालौर जाते समय रास्ते में सिवाणा का आक्रमण शीतलदेव एवं खिलजी के मध्य युद्ध हुआ। जिसमें खिलजी के सेनानायक नाहर खां मारे गए एवं खिलजी विजय रहा।
    अलाउद्दीन खिलजी ने छल-कपट से शीतलदेव के सेनानायक को अपनी तरफ मिला लिया।
    1308 का शाका हुआ, यह जालौर का पहला शाका था।
    जालौर युद्ध में कान्हड़देव परिवार के सदस्य को अलाउद्दीन खिलजी ने कुछ समय के लिए चित्तौड़ का कार्यभार दिया।
    अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर में अलाई दरवाजे का निर्माण करवाया।
    जालौर के चैहन वंष की जानकारी ‘नैणसी री ख्पात’ व ‘कान्हड़देव प्रबन्ध’ (पद्मनाभ) में मिलती हैं।

सिरोही के चैहान:-

    सिरोही में चैहान वंष की नींव लुम्बा ने रखी थी। इन्होने अपनी राजधानी चन्द्रावती को बनाया।
    1823 ई. में यहां के शासक षिवसिंह ने ईस्ट इण्डिया कंपनी से संधि करली।

मेवाड़ का इतिहास

    मेवाड़ का प्राचीन नाम मेदपाट/ षिवी/ प्रागवाट हैं।

मेवाड़ में दो राजवंषों ने शासन किया:-

    गुहिल वंष:- गुहिल राजवंष की नींव गुहा द्वितीय ने रखी थी।
    सिसोदिया वंष:- राणा हम्मीर देव (संस्थापक)


गुहिल वंष
बप्पा रावल:-

    ह्यरित ऋषिके आर्षिवादसे अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई।
    जिससे इन्होने मेवाड़ की सीमा का विस्तार किया।
    अपनी राजधानी नागदा (उदयपुर) बनाई।
    बप्पा रावल ने चित्रागंद मौर्य से चित्तौड़ जीता।
    इन्होने अपने 734 कुलदेवता एकलिंगजी का मन्दिर बनवाया
    इन्होने सोने के सिक्के चलाए।
    नागदा के पास ही इनका समाधि स्थल हैं।

अल्लट:-

    इनके समय मेवाड़ अपनी उन्नति की चरमसीमापर था।
    इन्होने अपनी राजधानी आहड़ को बनाया।
    इन्होने हरियक वंष की राजकुमारी के साथ विवाह किया।

जैत्रसिंह:-

    इल्तुतमिष की सेना को पराजित किया।
    इसके दो पुत्र थे कर्णसिंह (कुम्भकर्ण) और रतनसिंह।
    कर्ण सिंह (कुम्भकर्ण) नेपाल चला गया और रतनसिंह ने मेवाड़ में शासन किया।

रतनसिंह (1302):-

    इनकी पत्नी का रानी रानी पद्मनी था।
    रतनसिंह मेवाड़ के गुहिल वंष का अंतिम शासक था।
    1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
    रतनसिंह परास्त हुआ, पुरूषो ने केसरिया किया एवं महिलाओं ने जौहर किया।
    यह मेवाड़ का पहला शाका था। इस युद्ध में गोरा-बादल शहीद हुए, जो रानी पद्मनी के रिष्तेदार थे।
    अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद रखा और अपने पुत्र खिज्रखां को प्रषासक बनाया।
    नोट:- अमीर खुसरों इस युद्ध मंे उपस्थित था।


सिसोदिया वंष

    इसका संस्थापक राणा हम्मीर था।
    इसके पिताजी का नाम अरीसिंह था।
    राणा हम्मीर को मेवाड़ का उद्धारक कहते हैं।
    महाराणा कुम्भा की रसिक प्रिया टीका में राणा हम्मीर को विषम घाटी पंचानन कहा गया हैं।

राणा लाखा:-

    हम्मीर का पौत्र था। इसका वास्तविक नाम लक्षसिंह था।
    राणा लाखा ने मारवाड़ा के राणा रणमल की बहन हंसादेवी से विवाह किया था।
    मोकल हंसा बाई और राणा लाखा का पुत्र था, जो लाखा के बाद मेवाड़ का शासक बना था।
    राणा लाखा के बन्जारे मंत्री ने पिछोला झील का निर्माण करवाया।
    राणा लाखा के समय ही जावर में चांदी की खान खोजी गई थी।

महाराणा कुंभा:-

    इन्हे अभिनव भरताचार्य एवं हिन्दु सुरताणा की संज्ञा दी जाती हैं।
    महाराणा कुंभा मोकल का पुत्र था, माता का नाम सौभाग्य देवी।

सारंगपुर का युद्ध (1437):-

    मालवा के शासक महमूद खिलजी और राणा कुंभा के बीच हुआ।
    कुंभा विजय हुआ, इस विजय के उपलक्ष में चित्तौड़ में कुंभा ने विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।
    इसे भारतीय मूर्तिकला का विष्वकोष कहते हैं।
    इसके निर्माता जैता और कुंजा थे।
    यह 9 मंजिला हैं।

चंपानेर की संधि (1456):-

    मालवा के शासक मेहमूद खिलजी और गुजरात के शासक कुतुबुदीन के बीच हुई।
    इस संधि का उद्देष्य मेवाड़ को जीतकर आपस में बांटना था, लेकिन कुंभा के हाथो दोनो पराजित हुए।

कुंभा का स्थापत्य कला:-

    अचलगढ़ दुर्ग का निर्माण, कुम्भलगढ़ दुर्ग का निर्माण, रणकपुर जैन मंदिर:-
    इसका निर्माण एक जैन श्रेष्ठी धरणकषाह ने करवाया था। इसमें आदिनाथ की मूर्ति लगी हुई हैं।

कुंभा के द्वारा लिखी गई पुस्तकें:- रसिकप्रिया, सूड़प्रबन्ध, संगीत मीमांसा,
संगीतराज, संगीत रत्नाकर
मंडन मिश्र:-

    कुंभा का दरबारी षिल्पकार/वास्तुकार।
    कुंभा के सभी महल इसी की देख-रेख में निर्मित हुए।
    इसकी प्रसिद्ध पुस्तक प्रासादमण्डल हैं।

रमाबाई, अत्री, महेषभट्ट, कान्हा व्यास कुंभा के दरबारी विद्वान हैं।
कुंभा की हत्या उसके पुत्र ऊदा ने 1468 में की थी
रायमल (1473-1509):-

    कुंभा का पुत्र, इसके तीन पुत्र थे पृथ्वीराज, जयमल, राणा सांगा इन तीनों के मध्य उत्तराधिकारी के लिए युद्ध हुआ जिसमें सांगा विजय हुए।
    अजमेर के सामन्त कर्मचन्द ने सांगा का साथ दिया।

राणा सांगा (1509-1527):-

    बाबर की जीवनी ‘बाबरनामा’ में राणा सांगा का उल्लेख हैं। सांगा के द्वारा लड़े गये युद्ध निम्न हैं:-

– खतौली (बूंदी) का युद्ध (1517):-

    राणा सांगा एवं इब्राहिम लोदी के बीच हुआ। सांगा विजय रहे।

- धौलपुर का युद्ध (1518):-

    राणा सांगा एवं इब्राहिम लोदी के बीच हुआ। सांगा विजय रहें।

- गागरोन का युद्ध (1519):-

    राणा सांगा एवं महमूद खिलजी द्वितीय (मालवा के शासक) के बीच। सांगा विजय हुए और खिलजी का मुकट और कमरबन्द छीनकर खिलजी को 6 माह तक चित्तौड़ मंे कैद रखा बाद में मुक्त कर दिया गया।

- बयाना का युद्ध (1527):-

    बाबर व राणा सांगा के बीच। सांगा विजय रहें।

– खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527):-

    बाबर व राणा सांगा, बाबर विजय रहा। बाबर ने इस युद्ध में जेहाद की घोषणा की थी।
    तोपखाने का प्रयोग किया। मुसलमानों पर तमगा नामक कर समाप्त किया।
    इस युद्ध में बाबर ने तुलगमा युद्ध प्रणाली को अपनाया।
    विजय के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि ली।
    घायल अवस्था में सांगा को दौसा के बसवा नामक स्थान पर लाया गया।
    इसी स्थान पर राणा सांगा की समाधि भी है।
    1528 मंे सांगा की मृत्यु हो गयी।
    सांगा की छतरी भीलवाड़ा के माण्डलगढ़ में हैं।

कर्मावती:-

    राणा सांगा की पत्नी।
    सांगा की मृत्यु के बाद विक्रमादित्य शासक बना और उसकी माता कर्मावती उसकी संरक्षिका बनी।
    1533 मंे गुजरात के शासक बहादुरषाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
    कर्मावती ने बहादुर शाह के विरूद्ध सैनिक सहायता के लिए हुमायू को राखी भेजी, लेकिन हुमायू सहायता नहीं भेज सका।
    कर्मावती ने जौहर किया और पुरूषों ने केसरिया किया।
    यह मेवाड़ का दूसरा शाका था।

उदयसिंह:-

    राणा सांगा का पुत्र, 1559 मंे उदयपुर की स्थापना की।
    1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
    उदयसिंह की सेना का नेतृत्व जयमल, फत्ता और कल्लाजी राठौड़ ने किया, तीनो वीरगती को प्राप्त हुए।
    पुरूषों ने केसरिया किया एवं महिलाओं ने जौहर किया।
    यह मेवाड़ का तीसरा शाका था।
    युद्ध के बाद उदयसिंह ने गोगुन्दा को राजधानी बनाया।

महाराणा प्रताप (1572-1597):-

    पिताजी का नाम उदयसिंह, माता जयन्ती बाई
    उदयसिंह ने अपने पुत्र जगमालसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाया था।
    लेकिन सरदारों ने स्वीकार नहीं किया।
    सरदारों ने महाराणा प्रताप को अपना राजा बनाया।
    महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा मंे हुआ और महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ को राजधानी बनाया।
    मुगल -मेवाड़ संघर्ष:- अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए

    निम्नलिखित दूत भेजे:-
    1 जलालखां 2. मानसिंह 3. भगवानदास 4. टोड़रमल

हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून, 1576):-

    अकबर का सेनापति मानसिंह एवं महाराणा प्रताप के बीच लड़ा गया।
    महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम खां सूर थे।
    बदायुनी ने इस युद्ध को गोगुन्दा का युद्ध कहा।
    अबुल फजल ने इस युद्ध को खमनोर के युद्ध की संज्ञा दी।
    कर्नल जेम्स टाॅड ने इसे थर्मोपल्ली की संज्ञा दी।
    इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया एवं 1597 मंे महाराणा प्रताप की चावण्ड में मृत्यु हो गयी।
    उदयपुर के बाड़ोली में महाराणा प्रताप की छतरी हैं, जबकि समाधि चावण्ड में हैं।
    जब महाराणा प्रताप घायल होकर युद्ध से बाहर हो गये, तब महाराणा प्रताप की जगह झाला बीदा ने संभाली थी।

दिवेर का युद्ध (1583-1615):-

    मुगल व मेवाड़ की सेना के बीच लड़ा गया।
    यह एक छापामार युद्ध था।
    कर्नल टाॅड ने इसे मेवाड़ के मैराथन की संज्ञा दी हैं।

मुगल मेवाड़ संधि (1615):-

    अमरसिंह एवं जहांगीर के बीच
    इस संधि में निम्न शर्तें थी:-
    अमरसिंह मुगल दरबार में उपस्थित नहीं होगा।
    मेवाड़ मुगलों से कोई वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं करेगा। यह दोनो शर्ते अमरसिंह की थी।
    मेवाड़ चित्तौड़ के किले का पुनः उद्धार नहीं करेगा। यह शर्त जहांगीर की थी।

कर्णसिंह:-

     इन्होने जगमन्दिर का निर्माण करवाया।

राजसिंह:-

    राजसमन्द झील (गोमती नदी के पानी को रोककर) का निर्माण करवाया एवं राजसमन्द की स्थापना की।
    नाथद्वारा में श्रीनाथजी के मन्दिर की स्थापना की।
    जयसिंह:- जयसमन्द झील का निर्माण करवाया। इसे डेबर झील भी कहते हैं।

संग्रामसिंह:-

    राजपूतो में एकता स्थापति एवं कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए हुरड़ा (भीलवाड़ा) में सम्मेलन बुलाने की योजना बनाई लेकिन उससे पहले ही इनकी मृत्यु हो गई।

जगसिंह द्वितीय:-

    मराठो से संघर्षं के लिए राजपूतों मंे एकता स्थापित की।

स्वरूपसिंह:-

    1857 की क्रांति के समय उदयपुर के शासक

भोपालसिंह:-

    उदयपुर के राजस्थान में विलय के समय, मेवाड़ के शासक, इन्हे राजस्थान का महाराज प्रमुख बनाया गया था।


जयपुर राजवंष
दुल्हेराय (1137):-

    ढुढ़ाड राज्य की स्थापना की, मीणाओं व बड़गुजरों को परास्त किया।

कोकिल देव (1207-1727) :- आमरे की नींव रखी।
भारमल (1547-73):-

    1547 में आमेर के शासक बने
    प्रथम राजपूत शासक जिसने मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थािपत किये।
    इन्होने अपनी पुत्री जोधाबाई (हरखुबाई)/मरियम उज्जमानी का विवाह अकबर से किया।
    जहांगीर इन्ही के पुत्र थें।

भगवान दास:- इन्होने अपनी पुत्री का विवाह जहांगीर से किया।
मानसिंह:-

    भगवानदास के दत्तक पुत्र थे।
    हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व मानसिंह ने किया था।
    1568 में अकबर के रणथम्भौर अभियान में मानसिंह अकबर के साथ गए थे।
    1572 में गुजरात अभियान में भी अकबर का साथ निभरया।
    1574 में बंगाल, बिहार, उड़ीसा के शासक दाऊद खां का दमन किया।
    1580 में काबुल अभियान में भी मानसिंह विजयी रहें।
    1580 में अकबर ने मानसिंह को सिंधु नदी का प्रषासक नियुक्त किया।
    1586 में मानसिंह व टोडरमल ने युसुफजाइयों का दमन किया।
    1590 में मानसिंह आमेर के शासक बने, उस समय अकबर ने उन्हे ‘राजा’ का खिताब दिया व मिर्जाराजा की उपाधि व 5000 का मनसब दिया।
    1594 में मानसिंह बंगाल के सूबेदार बने।
    1604 में इन्होने बंगाल में मुगलसत्ता की स्थापना की। बंगाल में शान्ति स्थापित की।
    इसी उपलक्ष में अकबर ने 7000 का मनसब (7000 जात, 6000 सवार प्रदान किया।
    अकबर ने फर्जंद और मिर्जाराजा की उपाधियां दी।
    मानसिंह 12 वर्षं की आयु में अकबर की सेवा में चले गए।
    मानसिंह ने दीन-ए-इलाही धर्मं नहीं अपनाया
    आमेर में जयगढ़ किले का निर्माण करवाया।
    वृंदावन में राधा-गोविन्द मंदिर (गौड़ीय संप्रदाय) का निर्माण करवाया।
    मुरारीदास ने मानचरित्र नामक पुस्तक लिखी हैं।
    इनकी मृत्यु एलिचपुर (महाराष्ट्र) में 1614 में हुई थी।

मिर्जाराजा जययिसंह (1621-1667):-

    शाहजहां ने मिर्जा की उपाधि प्रदान की।
    इन्होने जहांगीर, शाहजहां एवं औरंगजेब की सेवा की।
    1665 में षिवाजी के साथ पुरन्दर की संधि की।
    बिहारी इनके दरबारी कवि थे।
    बिहारी ने सतसई की रचना की।
    मिर्जा राजा जयसिंह ने जयपुर में जयगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया जो इनकी वास्तुकला के प्रति रूचि को दर्षांता हैं।
    इनकी मृत्यु बरहानपुर (मध्यप्रदेष) में 1667 में हुई थी।
    रामकवि ने जयसिंहचरित्र नामक पुस्तक लिखि हैं।

सवांई राजा जयसिंह (1700-1743):-

    इन्हे सवांई जयसिंह नाम औरंगजेब ने दिया। इनके बचपन का नाम विजयसिंह था।
    18 नवम्बर, 1727 को जयपुर की स्थापना की।
    जयपुर का निर्माण वास्तुविद् विद्याधर भट्टाचार्य के सहयोग से की।
    जयसिंह अंतिम हिंदु राजा थे, जिन्होने अष्वमेघ यज्ञ करवाया।
    पुण्डरिक रत्नाकार ने जयसिंह कल्पद्रुम की रचना की।
    जयसिंह को ज्योतिष व नक्षत्रों का अच्छा ज्ञान था।
    इन्होने जीज मोहम्मदषाही, जयसिंह कारिका ग्रंथों (नक्षत्रों से सम्बन्धित) की रचना की।
    जयपुर के जंतरमंतर का निर्माण जयसिंह ने करवाया था जिसे वर्तमान में विष्व की सांस्कृतिक धरोहर में शामिल किया गया हैं।
    चार अन्य वैधशाला का निर्माण दिल्ली, बनारस, उज्जैन, मथुरा मंे करवाया।
    इन्होने सीटी पैलेस (चन्द्र महल) का निर्माण करवाया।

सवांई ईष्वरसिंह:-

    रजमहल का युद्ध 1747 में बनास नदी के किनारे हुआ।
    माधोसिंह व मराठो का संयुक्त रूप से पराजित किया।
    इसके उपलक्ष में ईष्वरी सिंह ने ईष्वरलाट का निर्माण करवाया था।
    मराठों के अत्यधिक आक्रमण से तंग आकर अन्त में आत्महत्या करली।

सवांई माधोसिंह (प्रथम):-

    यह ईष्वरीसिंह के भाई थे।
    इनके शासककाल मंे जयपुर में नागरिकों ने मराठों का कत्लेआम किया।
    जयुपर में मोतीडूंगरी के महलों का निर्माण करवाया।
    सवांईमाधोपुर नगर बसाया।

सवांई प्रतापसिंह:-

    ये ‘ब्रजनिधि’ के नाम से काव्य रचनाएँ लिखते थे।
    इन्ही के समय में जयपुर में एक संगीत सम्मेलन बुलाया गया। जिसमें ‘राधा-गोविन्द संगीत सार’ ग्रंथ की रचना की गई।
    इन्होने 1799 ई. में हवामहल का निर्माण करवाया।

तुंगा का युद्ध (1787):-

    सवांई प्रतापसिंह ने इस युद्ध में महादजी सिन्धियां को हराया।
    तुंगा दौसा में स्थित हैं।
    सवांई प्रतापसिंह के समय में जयपुर में कला व साहित्य की अभूतपूर्व वृद्धि हुई

महाराजा मानसिंह (1835-80):-

    इन्होने 1843 में लार्ड लुडलों की सहायता से जयपुर में सतीप्रथा, दासप्रथा, कन्यावध को समाप्त किया।
    1857 की क्रान्ति में रामसिंह ने अंग्रेजो का भरपुर साथ दिया।
    अंग्रेजो ने इन्हे सितारे-हिन्द कहा।
    1876 में प्रिंस अल्बर्ट (प्रिंस वेल्स) जयपुर आए।
    इन्ही के सम्मान में पूरे जयपुर को गुलाबी रंग से रंगवाया गया।
    अल्बर्ट हाॅल (म्यूजियम) का षिलान्यास इन्होने किया।

माधोसिंह द्वितीय:-

    इन्होने मदनमोहन मालवीय के बनारस हिन्दु विष्वविद्यालय के लिए 5 लाख रुपये दान दिए।

मानसिंह द्वितीय:-

    माधोसिंह द्वितीय के दत्तक पुत्र थे।
    स्वतन्त्रता प्राप्ति तक यह जयपुर के शासक बने रहें।


जाट वंष
राजस्थान के पूर्वी भाग में भरतपुर, धौलपुर, डीग में जाटवंष का शासन था।
चूड़ामन:-

    जाट शक्ति का उदय औरंगजेब के समय हुआ।
    जाट सरदार चुड़ामन ने भरतपुर में धून का कीला बनाकर जाट राज्य की स्थापना की।

बदनसिंह:-

    इन्हें सवांईजयसिंह ने ब्रजनिधि की उपाधि प्रदान की एवं डीग की जागीर दी।
    इन्होने डीग में जलमहलों का निर्माण करवाया।
    जलमहल जयपुर में भी हैं।

सूरजमल:-

    इन्हे जाटों का ‘प्लेटो’/अफलातून भी कहा जाता हैं।
    लोहगढ़ का निर्माण करवाया
    भरतपुर का किला (मिट्टी का किला)


भाटी वंष

    भाटी वंष की स्थापना भट्टी ने की, भाटी स्वयं को चंद्रवंष यादव और श्रीकृष्ण के वंषज बताते हैं। इनकी नींव हनुमानगढ़ में रखी गई थी।
    भट्टी ने 285 ई. (तीसरी सदी) में हनुमानगढ़ (राजस्थान के उत्तर-पष्चिम भाग) में भटनेर का किला बनवाया।

भट्टी के वंष:-

    मंगलराव:- इसने अपनी राजधानी तनौट को बनाया था।
    देवराव:- इन्होने अपनी राजधानी लोद्रवा बनायी।
    राव जैसल:- इन्होने 1155 ई. जैसलमेर में भाटीवंष की स्थापना की।
    स्थापत्य:- सोनारगढ़ का दुर्ग बनवाया जो लाल पत्थरों से निर्मित हैं।
    जवाहर सिंह:- इनके समय में सागरमल गोपा की 1946 की घटना घटी।
    30 मार्च, 1949 को वृहद् राजस्थान में जैसलमेर का विलय हो गया।

करौली (कल्याणपुर)

    करौली में यदुवंषियों का शासन था। इसकी स्थापना विजयपाल ने की थी।
    तिमनगढ़का दुर्ग करौली के स्थापत्य को बताता हैं।

कोटा

    प्रारम्भ में कोटा बूंदी रियासत का एक भाग था।
    शहाजहां के समय राव रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह ने कोटा में पृथक राज्य की स्थापना की थी।

परमारवंश

    परमारों शासन आठवी से तेहरवी शताब्दी में आबू, चन्द्रावती आदि स्थानों पर था।
    परमारों ने अपनी राजधानी अथूना (बाड़मेर) को बनाया।

1 comment:

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