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Thursday, May 17, 2018

राजस्थान की जनजातियां

राजस्थान की जनजातियां
राजस्थान की जनजातियां
-    भील  – बील – तीरकमान (धनुषधारी):-
>    भील द्रविड़ भाषा के ‘बील’ का अपभ्रंष हैं।
>    दक्षिणी राजस्थान में बांसवाड़ा, डुंगरपुर, चित्तौड़गढ़, उदयपुर, प्रतापगढ़ में सर्वांधिक हैं।
>    टापरा:- भीलों का घर
>    विधवा-विवाह प्रचलित हैं, बाल विवाह नहीं होता हैं।
>    शिकार , वन-सम्पदा, कृषि आजीविका के साधान हैं।
>    परिवार पितृसत्तात्मक, संयुक्त होती, होता हैं।
>    बहिर्विवाही (Exogamous), एक विवाह (Monogomus) में विष्वास करते हैं।
>    गमेती:- भीलों का मुखिया, जो झगड़ों का निपटारा करता हैं।
>    खोयतू:- कमर पर बांधा जाने वाला लंगोटा।
>    कच्छाबू:- महिलाओं की घुटने तक का घाघरा।
>    फालूः- कमर का अंगोछा
>    अंगरूठी:- स्त्रियों की चोली
>    कू:- भीलों के घर को कहते हैं।
>    फलां:- ढ़ाणी
>    पल:- बड़ा गांव
>    बेलावा:- मार्गदर्षक
>    नातरा, बहुपत्नी, घरजवांई प्रथा का प्रचलन हैं।
>    फाइर-फाइरे:- भीलों का रणघोष हैं।
-     मीणा (मत्स्य):-
>    सवांईमाधोपुर, जयपुर, उदयपुर में 51.19 % प्रतिषत पाये जाते हैं।
>    अलवर, बूंदी, कोटा, सीकर, चित्तौड़गढ़ में 48.81 % पाये जाते हैं।
>    मत्स्यावतार से इनकी उत्पति का सम्बन्ध है।
>    चन्दराज भण्डारी ने अपनी पुस्तक ‘‘भगवान महावीर’’ में मत्स्य राज्य का वर्णन किया हैं। वर्तमान के अलवर, जयपुर, भरतपुर के शासक मेना (मीणा) कहलाते थें।
>    यह सबसे बड़ी जनजाति हैं। इस जनजाति के दो वर्ग हैं 1. जमींदार मीणा 2. चौकीदार मीणा।
>    मीणाओं में 24 खाप, 13 पाल, 5200 गौत्र हैं। 5200 गौत्र का उल्लेख मुनि मगर सागर के मीणा पुराण में हैं।
>    ब्रह्य, गन्धर्व, राक्षस विवाह का प्रचलन हैं।
>    तलाक प्रथा प्रचलित हैं।
>    पति द्वारा दुपट्टे का पल्लू फाड़कर देने पर तलाक हो जाता हैक्ं।
>    नाता प्रथा प्रचलित हैं, बाल-विवाह प्रचलित हैं।
>    मीणा समुदाय में बंटाईदारी कृषि प्रचलित हैक्।
>    बहन के पति का अत्यधिक सम्मान करते हैं।
>    गोद प्रथा पाई जाती हैं।
-    गरासिया:-
>    आबू रोड़, पिंडवाड़ा, पाली, उदयुर, गोगुन्दा, कोटड़ा में सर्वांधिक हैं। अरावली पहाड़ी में सर्वांधिक पाई जाती हैं।
>    कुल जनसंख्या का सर्वांधिक 56.63 % उदयपुर में हैं।
>    कुल जनजाति का 6.70 % है।
>    राजस्थान में संख्या की दृष्टि से तीसरी सर्वांधिक हैं।
>    मोरे बांधिया विवाह:- हिन्दु धर्मं के ब्रह्य-विवाह की तरह फेरे लेना।
>    पहरावना विवाह:- नाममात्र के फेरे लेते हैं।
>    ताणना:- सगाई फेरे नहीं होते हैं।
>    विधावा विवाह, पितृसत्तात्मक परिवार, प्रेम-विवाह प्रचलित हैं।
>    घर को घेर कहते हैं, नक्की झील में अस्थियां विसर्जित करते हैं।
>    बंसूरी, नगाड़ा, अलगोजा प्रिय वाद्य यंत्र है। विवाह संविदा हैं।
>    अट्टा-सट्टा:- विनिमय विवाह प्रचलित हैं।
>    12 वें दिन शव का अंतिम संस्कार करते हैं।
>    फालिया:- एक ही गौत्र के लोगो की छोटी इकाई।
-    सहरिया:-
>    बारां के किषनगंज, शाहबाद, कोटा में सर्वांधिक वनवासी जनजाति हैं। जिसे भारत सरकार ने आदिम जनजाति समूह की सूची में रखा हैं।
>    शिकार में पूर्ण दक्ष, बस्ती को सहराना कहते हैं। घास-फूस के घर को टापरी कहते हैं।
>    गोपना, कोरूआ, टोपा:- पेड़ों पर बनी मचान-नुमा छोटी झोपड़ी।
>    पंचायत:- सहरियों की महत्वपूर्ण संस्था, सीतावाड़ी के वाल्मिकि मन्दिर में सबसे बड़ी पंचायत होती हैं। इस पंचायत को चौरासिया पंचायत कहते हैं।
>    नाता:- दूसरा विवाह
>    जाति का मुखिया कोतवाल कहलाता हैं।
>    संगौत्र विवाह वर्जित हैं।
>    बहुपत्नी प्रथ, दापा प्रचलित हैं।
-    डोमार:-
>    राज्य के कुल आदिवासी संख्या का 0.63 % हैं।
>    डुंगरपुर की सीमलवाड़ा और बांसवाड़ा एवं गुजरात सीमा पर सर्वांधिक है।
>    सीमलवाड़ा में 70.88 % हैं। सीमलवाड़ा के डामोर बाहुल्य भाग को डामरिया क्षेत्र कहते हैं।
>    विधवा विवाह, तलाक, नातेदारी प्रचलित हैं।
>    एकल परिवार की प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, दापा प्रचलित हैं।
>    गुजरात के पंचमहल में छेला बावजी का मेला, ग्यारस को रेवाड़ी (डुंगरपुर) में मेला लगता हैं।
-    कथौड़ी:-
>    उदयपुर को कोटड़ा, गोगुन्दा, सराड़ा, झाड़ोल में स्थित हैं।
>    कत्था का व्यवसाय (उत्पादन) करती हैं।
>    शराब प्रिय, नाता, विवाह-विच्छेद, विधवा-विवाह, दापा प्रथा, मांसाहारी प्रचलन में हैं।
-    कंजर:-
>    जंगलों में विचरने वाली जाति हैं। यह कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, झालावाड़, अलवर, उदयपुर, अजमेर में पायी जाती हैं।
>    इनके घरों में किवाड़ एवं खिड़की नहीं होते हैं।
>    हाकम राजा का प्याला पीकर झुठी कसम नहीं खाते हैं।
>    मृतकों के मुंह में शराब की बूंदे ड़ालते हैं।
जनजाति विकास हेतु कार्यक्रम
>    जनजाति उप-योजना क्षेत्र -1974:-
>    यह बांसवाड़ा, डुंगरपुर, उदयपुर, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़, सिरोही में शुरू की गई। इस क्षेत्र का सर्वांगीण विकास, षिक्षा, चिकित्सा, जलापूर्ति, नियोजन, प्रषिक्षण, आश्रम छात्रावास की सुविधा उपलब्ध करवाना।
>    बांसवाड़ा में नर्स, उदयपुर में कम्पाउण्डर प्रषिक्षण केन्द्र, डुंगरपुर मेंS.T.C, डबोक में बी.एड. प्रषिक्षण केन्द्र संचालित हैं।
-    परिवर्तित क्षेत्र विकास कार्यक्रम (MADA) 1979:-
>    यह 16 जिलों अलवर, धौलपुर, दौसा, सवांईमाधोपुर, करौली, जयपुर, टोंक, कोटा-बूंदी, झालााड़, बारां, पाली, उदयपुर, सिरोही, चित्तौड़गढ़ में संचालित हैं।
>    जनजातियों को आर्थिंक दृष्टि से ऊपर लाना, स्कूल, सामुदायिक कुओं, गृहनिर्माण, वस्त्र, दरी बुनाई, पेयजल, चिकित्सा जैसी सुविधाऐं उपलब्ध करवाना।
-    सहरिया विकास कार्यक्रम, 1977-78:-
>    बारां के किषनगंज, शाहाबाद की एकमात्र आदमि जाति सहरिया के विकास के लिए शुरू की गई।
>    इसके अन्तर्गत कृषि, लघु सिंचाई, पशु-पालन, वानिकी, शिक्षा , पेयजल, चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाना आदि शामिल हैं।
-    बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम, 1979:-
>    डुंगरपुर, बांसवाड़ा को छोड़कर शेष 31 जिलों में संचालित हैं। इसके अन्तर्गत षिक्षा, चिकित्सा, आवास की सुविधा उपलब्ध करवाना आदि शामिल हैं।
-    रूख मायला कार्यक्रम:-
>    जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों में सामाजिक वानिकी को बढ़ाा देना, पेड़ों की कटाई रोकना, स्वयं-सेवको को प्रतिमाह 300रु. भत्ता दिया जाता हैं।
-    राजस्थान जनजातीय क्षेत्रीय विकास सहकारी संघ-1976 (उदयपुर):-
>    आदिवासी क्षेत्रों में उचित मूल्य पर कृषि उपज व उपभोक्ता वस्तुओं का वितरण करना। संघ के 6 क्षेत्रीय कार्यालय हैं:- उदयपुर, बांसवाड़ा, डुंगरपुर, बांरा, प्रतापगढ़।
>    इसका मुख्यालय उदयपुर में हैं।
>    इस योजना का मुख्य उद्देष्य आदिवासियों को बिचौलियों, व्यापारियों, साहुकारों के शोषण से मुक्त कराना हैं।
-    माणिक्यलाल वर्मा आदमि जाति शोध-प्रषिक्षण संस्थान, 1979:-
>    माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रषिक्षण संस्थान उदयपुर में स्थित हैं। यह संस्थान जनजाति विकास निगम के अधीन संचालित हैं।

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