राजस्थान की जनजातियां
राजस्थान की जनजातियां
- भील – बील – तीरकमान (धनुषधारी):-
> भील द्रविड़ भाषा के ‘बील’ का अपभ्रंष हैं।
> दक्षिणी राजस्थान में बांसवाड़ा, डुंगरपुर, चित्तौड़गढ़, उदयपुर, प्रतापगढ़ में सर्वांधिक हैं।
> टापरा:- भीलों का घर
> विधवा-विवाह प्रचलित हैं, बाल विवाह नहीं होता हैं।
> शिकार , वन-सम्पदा, कृषि आजीविका के साधान हैं।
> परिवार पितृसत्तात्मक, संयुक्त होती, होता हैं।
> बहिर्विवाही (Exogamous), एक विवाह (Monogomus) में विष्वास करते हैं।
> गमेती:- भीलों का मुखिया, जो झगड़ों का निपटारा करता हैं।
> खोयतू:- कमर पर बांधा जाने वाला लंगोटा।
> कच्छाबू:- महिलाओं की घुटने तक का घाघरा।
> फालूः- कमर का अंगोछा
> अंगरूठी:- स्त्रियों की चोली
> कू:- भीलों के घर को कहते हैं।
> फलां:- ढ़ाणी
> पल:- बड़ा गांव
> बेलावा:- मार्गदर्षक
> नातरा, बहुपत्नी, घरजवांई प्रथा का प्रचलन हैं।
> फाइर-फाइरे:- भीलों का रणघोष हैं।
- मीणा (मत्स्य):-
> सवांईमाधोपुर, जयपुर, उदयपुर में 51.19 % प्रतिषत पाये जाते हैं।
> अलवर, बूंदी, कोटा, सीकर, चित्तौड़गढ़ में 48.81 % पाये जाते हैं।
> मत्स्यावतार से इनकी उत्पति का सम्बन्ध है।
> चन्दराज भण्डारी ने अपनी पुस्तक ‘‘भगवान महावीर’’ में मत्स्य राज्य का वर्णन किया हैं। वर्तमान के अलवर, जयपुर, भरतपुर के शासक मेना (मीणा) कहलाते थें।
> यह सबसे बड़ी जनजाति हैं। इस जनजाति के दो वर्ग हैं 1. जमींदार मीणा 2. चौकीदार मीणा।
> मीणाओं में 24 खाप, 13 पाल, 5200 गौत्र हैं। 5200 गौत्र का उल्लेख मुनि मगर सागर के मीणा पुराण में हैं।
> ब्रह्य, गन्धर्व, राक्षस विवाह का प्रचलन हैं।
> तलाक प्रथा प्रचलित हैं।
> पति द्वारा दुपट्टे का पल्लू फाड़कर देने पर तलाक हो जाता हैक्ं।
> नाता प्रथा प्रचलित हैं, बाल-विवाह प्रचलित हैं।
> मीणा समुदाय में बंटाईदारी कृषि प्रचलित हैक्।
> बहन के पति का अत्यधिक सम्मान करते हैं।
> गोद प्रथा पाई जाती हैं।
- गरासिया:-
> आबू रोड़, पिंडवाड़ा, पाली, उदयुर, गोगुन्दा, कोटड़ा में सर्वांधिक हैं। अरावली पहाड़ी में सर्वांधिक पाई जाती हैं।
> कुल जनसंख्या का सर्वांधिक 56.63 % उदयपुर में हैं।
> कुल जनजाति का 6.70 % है।
> राजस्थान में संख्या की दृष्टि से तीसरी सर्वांधिक हैं।
> मोरे बांधिया विवाह:- हिन्दु धर्मं के ब्रह्य-विवाह की तरह फेरे लेना।
> पहरावना विवाह:- नाममात्र के फेरे लेते हैं।
> ताणना:- सगाई फेरे नहीं होते हैं।
> विधावा विवाह, पितृसत्तात्मक परिवार, प्रेम-विवाह प्रचलित हैं।
> घर को घेर कहते हैं, नक्की झील में अस्थियां विसर्जित करते हैं।
> बंसूरी, नगाड़ा, अलगोजा प्रिय वाद्य यंत्र है। विवाह संविदा हैं।
> अट्टा-सट्टा:- विनिमय विवाह प्रचलित हैं।
> 12 वें दिन शव का अंतिम संस्कार करते हैं।
> फालिया:- एक ही गौत्र के लोगो की छोटी इकाई।
- सहरिया:-
> बारां के किषनगंज, शाहबाद, कोटा में सर्वांधिक वनवासी जनजाति हैं। जिसे भारत सरकार ने आदिम जनजाति समूह की सूची में रखा हैं।
> शिकार में पूर्ण दक्ष, बस्ती को सहराना कहते हैं। घास-फूस के घर को टापरी कहते हैं।
> गोपना, कोरूआ, टोपा:- पेड़ों पर बनी मचान-नुमा छोटी झोपड़ी।
> पंचायत:- सहरियों की महत्वपूर्ण संस्था, सीतावाड़ी के वाल्मिकि मन्दिर में सबसे बड़ी पंचायत होती हैं। इस पंचायत को चौरासिया पंचायत कहते हैं।
> नाता:- दूसरा विवाह
> जाति का मुखिया कोतवाल कहलाता हैं।
> संगौत्र विवाह वर्जित हैं।
> बहुपत्नी प्रथ, दापा प्रचलित हैं।
- डोमार:-
> राज्य के कुल आदिवासी संख्या का 0.63 % हैं।
> डुंगरपुर की सीमलवाड़ा और बांसवाड़ा एवं गुजरात सीमा पर सर्वांधिक है।
> सीमलवाड़ा में 70.88 % हैं। सीमलवाड़ा के डामोर बाहुल्य भाग को डामरिया क्षेत्र कहते हैं।
> विधवा विवाह, तलाक, नातेदारी प्रचलित हैं।
> एकल परिवार की प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, दापा प्रचलित हैं।
> गुजरात के पंचमहल में छेला बावजी का मेला, ग्यारस को रेवाड़ी (डुंगरपुर) में मेला लगता हैं।
- कथौड़ी:-
> उदयपुर को कोटड़ा, गोगुन्दा, सराड़ा, झाड़ोल में स्थित हैं।
> कत्था का व्यवसाय (उत्पादन) करती हैं।
> शराब प्रिय, नाता, विवाह-विच्छेद, विधवा-विवाह, दापा प्रथा, मांसाहारी प्रचलन में हैं।
- कंजर:-
> जंगलों में विचरने वाली जाति हैं। यह कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, झालावाड़, अलवर, उदयपुर, अजमेर में पायी जाती हैं।
> इनके घरों में किवाड़ एवं खिड़की नहीं होते हैं।
> हाकम राजा का प्याला पीकर झुठी कसम नहीं खाते हैं।
> मृतकों के मुंह में शराब की बूंदे ड़ालते हैं।
जनजाति विकास हेतु कार्यक्रम
> जनजाति उप-योजना क्षेत्र -1974:-
> यह बांसवाड़ा, डुंगरपुर, उदयपुर, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़, सिरोही में शुरू की गई। इस क्षेत्र का सर्वांगीण विकास, षिक्षा, चिकित्सा, जलापूर्ति, नियोजन, प्रषिक्षण, आश्रम छात्रावास की सुविधा उपलब्ध करवाना।
> बांसवाड़ा में नर्स, उदयपुर में कम्पाउण्डर प्रषिक्षण केन्द्र, डुंगरपुर मेंS.T.C, डबोक में बी.एड. प्रषिक्षण केन्द्र संचालित हैं।
- परिवर्तित क्षेत्र विकास कार्यक्रम (MADA) 1979:-
> यह 16 जिलों अलवर, धौलपुर, दौसा, सवांईमाधोपुर, करौली, जयपुर, टोंक, कोटा-बूंदी, झालााड़, बारां, पाली, उदयपुर, सिरोही, चित्तौड़गढ़ में संचालित हैं।
> जनजातियों को आर्थिंक दृष्टि से ऊपर लाना, स्कूल, सामुदायिक कुओं, गृहनिर्माण, वस्त्र, दरी बुनाई, पेयजल, चिकित्सा जैसी सुविधाऐं उपलब्ध करवाना।
- सहरिया विकास कार्यक्रम, 1977-78:-
> बारां के किषनगंज, शाहाबाद की एकमात्र आदमि जाति सहरिया के विकास के लिए शुरू की गई।
> इसके अन्तर्गत कृषि, लघु सिंचाई, पशु-पालन, वानिकी, शिक्षा , पेयजल, चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाना आदि शामिल हैं।
- बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम, 1979:-
> डुंगरपुर, बांसवाड़ा को छोड़कर शेष 31 जिलों में संचालित हैं। इसके अन्तर्गत षिक्षा, चिकित्सा, आवास की सुविधा उपलब्ध करवाना आदि शामिल हैं।
- रूख मायला कार्यक्रम:-
> जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों में सामाजिक वानिकी को बढ़ाा देना, पेड़ों की कटाई रोकना, स्वयं-सेवको को प्रतिमाह 300रु. भत्ता दिया जाता हैं।
- राजस्थान जनजातीय क्षेत्रीय विकास सहकारी संघ-1976 (उदयपुर):-
> आदिवासी क्षेत्रों में उचित मूल्य पर कृषि उपज व उपभोक्ता वस्तुओं का वितरण करना। संघ के 6 क्षेत्रीय कार्यालय हैं:- उदयपुर, बांसवाड़ा, डुंगरपुर, बांरा, प्रतापगढ़।
> इसका मुख्यालय उदयपुर में हैं।
> इस योजना का मुख्य उद्देष्य आदिवासियों को बिचौलियों, व्यापारियों, साहुकारों के शोषण से मुक्त कराना हैं।
- माणिक्यलाल वर्मा आदमि जाति शोध-प्रषिक्षण संस्थान, 1979:-
> माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रषिक्षण संस्थान उदयपुर में स्थित हैं। यह संस्थान जनजाति विकास निगम के अधीन संचालित हैं।
राजस्थान की जनजातियां
- भील – बील – तीरकमान (धनुषधारी):-
> भील द्रविड़ भाषा के ‘बील’ का अपभ्रंष हैं।
> दक्षिणी राजस्थान में बांसवाड़ा, डुंगरपुर, चित्तौड़गढ़, उदयपुर, प्रतापगढ़ में सर्वांधिक हैं।
> टापरा:- भीलों का घर
> विधवा-विवाह प्रचलित हैं, बाल विवाह नहीं होता हैं।
> शिकार , वन-सम्पदा, कृषि आजीविका के साधान हैं।
> परिवार पितृसत्तात्मक, संयुक्त होती, होता हैं।
> बहिर्विवाही (Exogamous), एक विवाह (Monogomus) में विष्वास करते हैं।
> गमेती:- भीलों का मुखिया, जो झगड़ों का निपटारा करता हैं।
> खोयतू:- कमर पर बांधा जाने वाला लंगोटा।
> कच्छाबू:- महिलाओं की घुटने तक का घाघरा।
> फालूः- कमर का अंगोछा
> अंगरूठी:- स्त्रियों की चोली
> कू:- भीलों के घर को कहते हैं।
> फलां:- ढ़ाणी
> पल:- बड़ा गांव
> बेलावा:- मार्गदर्षक
> नातरा, बहुपत्नी, घरजवांई प्रथा का प्रचलन हैं।
> फाइर-फाइरे:- भीलों का रणघोष हैं।
- मीणा (मत्स्य):-
> सवांईमाधोपुर, जयपुर, उदयपुर में 51.19 % प्रतिषत पाये जाते हैं।
> अलवर, बूंदी, कोटा, सीकर, चित्तौड़गढ़ में 48.81 % पाये जाते हैं।
> मत्स्यावतार से इनकी उत्पति का सम्बन्ध है।
> चन्दराज भण्डारी ने अपनी पुस्तक ‘‘भगवान महावीर’’ में मत्स्य राज्य का वर्णन किया हैं। वर्तमान के अलवर, जयपुर, भरतपुर के शासक मेना (मीणा) कहलाते थें।
> यह सबसे बड़ी जनजाति हैं। इस जनजाति के दो वर्ग हैं 1. जमींदार मीणा 2. चौकीदार मीणा।
> मीणाओं में 24 खाप, 13 पाल, 5200 गौत्र हैं। 5200 गौत्र का उल्लेख मुनि मगर सागर के मीणा पुराण में हैं।
> ब्रह्य, गन्धर्व, राक्षस विवाह का प्रचलन हैं।
> तलाक प्रथा प्रचलित हैं।
> पति द्वारा दुपट्टे का पल्लू फाड़कर देने पर तलाक हो जाता हैक्ं।
> नाता प्रथा प्रचलित हैं, बाल-विवाह प्रचलित हैं।
> मीणा समुदाय में बंटाईदारी कृषि प्रचलित हैक्।
> बहन के पति का अत्यधिक सम्मान करते हैं।
> गोद प्रथा पाई जाती हैं।
- गरासिया:-
> आबू रोड़, पिंडवाड़ा, पाली, उदयुर, गोगुन्दा, कोटड़ा में सर्वांधिक हैं। अरावली पहाड़ी में सर्वांधिक पाई जाती हैं।
> कुल जनसंख्या का सर्वांधिक 56.63 % उदयपुर में हैं।
> कुल जनजाति का 6.70 % है।
> राजस्थान में संख्या की दृष्टि से तीसरी सर्वांधिक हैं।
> मोरे बांधिया विवाह:- हिन्दु धर्मं के ब्रह्य-विवाह की तरह फेरे लेना।
> पहरावना विवाह:- नाममात्र के फेरे लेते हैं।
> ताणना:- सगाई फेरे नहीं होते हैं।
> विधावा विवाह, पितृसत्तात्मक परिवार, प्रेम-विवाह प्रचलित हैं।
> घर को घेर कहते हैं, नक्की झील में अस्थियां विसर्जित करते हैं।
> बंसूरी, नगाड़ा, अलगोजा प्रिय वाद्य यंत्र है। विवाह संविदा हैं।
> अट्टा-सट्टा:- विनिमय विवाह प्रचलित हैं।
> 12 वें दिन शव का अंतिम संस्कार करते हैं।
> फालिया:- एक ही गौत्र के लोगो की छोटी इकाई।
- सहरिया:-
> बारां के किषनगंज, शाहबाद, कोटा में सर्वांधिक वनवासी जनजाति हैं। जिसे भारत सरकार ने आदिम जनजाति समूह की सूची में रखा हैं।
> शिकार में पूर्ण दक्ष, बस्ती को सहराना कहते हैं। घास-फूस के घर को टापरी कहते हैं।
> गोपना, कोरूआ, टोपा:- पेड़ों पर बनी मचान-नुमा छोटी झोपड़ी।
> पंचायत:- सहरियों की महत्वपूर्ण संस्था, सीतावाड़ी के वाल्मिकि मन्दिर में सबसे बड़ी पंचायत होती हैं। इस पंचायत को चौरासिया पंचायत कहते हैं।
> नाता:- दूसरा विवाह
> जाति का मुखिया कोतवाल कहलाता हैं।
> संगौत्र विवाह वर्जित हैं।
> बहुपत्नी प्रथ, दापा प्रचलित हैं।
- डोमार:-
> राज्य के कुल आदिवासी संख्या का 0.63 % हैं।
> डुंगरपुर की सीमलवाड़ा और बांसवाड़ा एवं गुजरात सीमा पर सर्वांधिक है।
> सीमलवाड़ा में 70.88 % हैं। सीमलवाड़ा के डामोर बाहुल्य भाग को डामरिया क्षेत्र कहते हैं।
> विधवा विवाह, तलाक, नातेदारी प्रचलित हैं।
> एकल परिवार की प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, दापा प्रचलित हैं।
> गुजरात के पंचमहल में छेला बावजी का मेला, ग्यारस को रेवाड़ी (डुंगरपुर) में मेला लगता हैं।
- कथौड़ी:-
> उदयपुर को कोटड़ा, गोगुन्दा, सराड़ा, झाड़ोल में स्थित हैं।
> कत्था का व्यवसाय (उत्पादन) करती हैं।
> शराब प्रिय, नाता, विवाह-विच्छेद, विधवा-विवाह, दापा प्रथा, मांसाहारी प्रचलन में हैं।
- कंजर:-
> जंगलों में विचरने वाली जाति हैं। यह कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, झालावाड़, अलवर, उदयपुर, अजमेर में पायी जाती हैं।
> इनके घरों में किवाड़ एवं खिड़की नहीं होते हैं।
> हाकम राजा का प्याला पीकर झुठी कसम नहीं खाते हैं।
> मृतकों के मुंह में शराब की बूंदे ड़ालते हैं।
जनजाति विकास हेतु कार्यक्रम
> जनजाति उप-योजना क्षेत्र -1974:-
> यह बांसवाड़ा, डुंगरपुर, उदयपुर, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़, सिरोही में शुरू की गई। इस क्षेत्र का सर्वांगीण विकास, षिक्षा, चिकित्सा, जलापूर्ति, नियोजन, प्रषिक्षण, आश्रम छात्रावास की सुविधा उपलब्ध करवाना।
> बांसवाड़ा में नर्स, उदयपुर में कम्पाउण्डर प्रषिक्षण केन्द्र, डुंगरपुर मेंS.T.C, डबोक में बी.एड. प्रषिक्षण केन्द्र संचालित हैं।
- परिवर्तित क्षेत्र विकास कार्यक्रम (MADA) 1979:-
> यह 16 जिलों अलवर, धौलपुर, दौसा, सवांईमाधोपुर, करौली, जयपुर, टोंक, कोटा-बूंदी, झालााड़, बारां, पाली, उदयपुर, सिरोही, चित्तौड़गढ़ में संचालित हैं।
> जनजातियों को आर्थिंक दृष्टि से ऊपर लाना, स्कूल, सामुदायिक कुओं, गृहनिर्माण, वस्त्र, दरी बुनाई, पेयजल, चिकित्सा जैसी सुविधाऐं उपलब्ध करवाना।
- सहरिया विकास कार्यक्रम, 1977-78:-
> बारां के किषनगंज, शाहाबाद की एकमात्र आदमि जाति सहरिया के विकास के लिए शुरू की गई।
> इसके अन्तर्गत कृषि, लघु सिंचाई, पशु-पालन, वानिकी, शिक्षा , पेयजल, चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाना आदि शामिल हैं।
- बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम, 1979:-
> डुंगरपुर, बांसवाड़ा को छोड़कर शेष 31 जिलों में संचालित हैं। इसके अन्तर्गत षिक्षा, चिकित्सा, आवास की सुविधा उपलब्ध करवाना आदि शामिल हैं।
- रूख मायला कार्यक्रम:-
> जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों में सामाजिक वानिकी को बढ़ाा देना, पेड़ों की कटाई रोकना, स्वयं-सेवको को प्रतिमाह 300रु. भत्ता दिया जाता हैं।
- राजस्थान जनजातीय क्षेत्रीय विकास सहकारी संघ-1976 (उदयपुर):-
> आदिवासी क्षेत्रों में उचित मूल्य पर कृषि उपज व उपभोक्ता वस्तुओं का वितरण करना। संघ के 6 क्षेत्रीय कार्यालय हैं:- उदयपुर, बांसवाड़ा, डुंगरपुर, बांरा, प्रतापगढ़।
> इसका मुख्यालय उदयपुर में हैं।
> इस योजना का मुख्य उद्देष्य आदिवासियों को बिचौलियों, व्यापारियों, साहुकारों के शोषण से मुक्त कराना हैं।
- माणिक्यलाल वर्मा आदमि जाति शोध-प्रषिक्षण संस्थान, 1979:-
> माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रषिक्षण संस्थान उदयपुर में स्थित हैं। यह संस्थान जनजाति विकास निगम के अधीन संचालित हैं।
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