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Tuesday, May 22, 2018
Saturday, May 19, 2018
National Highways (राष्ट्रीय राजमार्गों)
राष्ट्रीय राजमार्गों (National Highways)
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 1 (km. 456) – दिल्ली से अमृतसर तथा भारत-पाकिस्तान सीमा तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 1A (km. 663) – जलंधर से उरी तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 1B (km. 274) – बटोटे से खानाबल तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 1C (km. 8) – डोमेल से कटरा तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 1D (km. 422) – श्रीनगर से कारगिल से लेह तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 2 (km. 1,465) – दिल्ली से कोलकाता तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 2A (km. 25) – सिकन्दरा से भोगनीपुर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 2B (km. 52) – बर्धमान से बोलपुर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 3 (km. 1,161) – आगरा से मुम्बई तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 4 (km. 1,235) – थाणे के पास राष्ट्रीय राजमार्ग 3 से चेन्नई तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 4A (km. 153) – बेलगाम से पणजी तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 4B (km. 27) – नवाशेवा से पाल्सपे तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 5 (km. 1,533) – राष्ट्रीय राजमार्ग 6 से चेन्नई तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 5A (km. 77) – राष्ट्रीय राजमार्ग 5 के पास से पारादीप बंदरगाह तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 6 (km. 1,949) – हजीरा से कोलकाता तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 7 (km. 2,369) – वाराणसी से कन्याकुमारी तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग NH) 7A (km. 51) – लयमकोट्टई से तूतीकोरन बंदरगाह तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 8 (km. 1,428) – दिल्ली से मुंबई तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 8A (km. 473) – अहमदाबाद से मांडवी तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 8B (km. 206) – बामनबोर से पोरबंदर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 8C (km. 46) – चिलोड़ा से सरखेज तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 8D (km. 127) – जेतपुर से सोमनाथ तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 8E (km. 220) – सोमनाथ से भावनगर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) NE 1 (km. 93) – अहमदाबाद से वडोडरा तक
- एक्सप्रेस वेराष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 9 (km. 841) – मुणे से मछलीपट्टनम तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 10 (km. 403) – दिल्ली से फज़िल्का से भारत पाकिस्तान सीमा तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 11 (km. 582) – आगरा से बीकानेर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 11A (km. 145) – मनोहरपुर से कोथम तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 11B (km. 180) – लालसोट से धौलपुर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 12 (km. 890) – जबलपुर से जयपुर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 12A (km. 333) – जबलपुर से झाँसी तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 13 (km. 691) – शोलापुर से मंगलौर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 14 (km. 450) – बीवार से राधापुर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 15 (km. 1,526) – पठानकोट से समाखियाली तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 16 (km. 460) – निजामाबाद से जगदलपुर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 17 (km. 1,269) – पानवेल से इदपल्ली तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 17A (km. 19) – राष्ट्रीय राजमार्ग 7 के पास कोर्टलम से मढ़गाव तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 17B (km. 40) – पोंडा से वास्को तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 18 (km. 369) – राष्ट्रीय राजमार्ग 7 के पास कुरनूल से राष्ट्रीय राजमार्ग 4 के पास चित्तूर तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 18A (km. 50) – तिरुपति से पुथलपट्टू तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 19 (km. 240) – गाजीपुर से पटना तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 20 (km. 220) – पठानकोट से मंडी तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 21 (km. 323) – चंड़ीगढ़ के पास राष्ट्रीय राजमार्ग 22 से मनाली तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 21A (km. 65) – पिंजौर से स्वारघाट तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 22 (km. 459) – अंबाला से भारत चीन सीमा के पास शिपकिला तकराष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 23 (km. 459) – चस से राष्ट्रीय राजमार्ग 42 के संगम तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 24 (km. 438) – दिल्ली से लखनऊ तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 24A (km. 17) – बख्शी का तालाब से चेन्हट (राष्ट्रीय राजमार्ग 28) तकराष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 25 (km. 352) – लखनऊ से शिवपुरी तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 25A (km. 31) – राष्ट्रीय राजमार्ग 25 से बख्शी का तालाब तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 26 (km. 396) – झाँसी से लखनादौन तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 27 (km. 93) – इलाहाबाद से मंगावन तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 28 (km. 570) – बरौनी के पास राष्ट्रीय राजमार्ग 31 से लखनऊ तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 28A (km. 68) – पिपरा के पास राष्ट्रीय राजमार्ग 28 से भारत नेपाल सीमा तक
- राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 28B (km. 121) – छपवा से छपरा से राष्ट्रीय राजमार्ग 28 ए के पास बाघा तकराष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 28C (km. 184) – बारबंकी से नेपाल सीमा तक
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भारत तथा राजस्थान की महत्वपुर्ण G.K हेतु
INDAI AND RAJASTHAN ALL GENERAL KNOWLEDGE
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Thursday, May 17, 2018
CONSTITUTION OF INDIA (भारतीय संविधान )
INDIA(भारतीय) संविधान निर्माण
- ब्रिटिष काल में भारत के लिए पहला कानून 1773 में रेग्यूलेटींग एक्ट बना
संविधान निर्माण के दौरान के प्रावधान:-
- 1784 का पिट्स इण्डिया एक्ट
- 1793 का भारत परिषद अधिनियम
- 1858 का भारत शासन अधिनियम
- 1858 के अधिनियम के बाद कंपनी का शासन ब्रिटीष सम्राट के हाथों मे चला गया।
- 1861 का अधिनियम।
- इस अधिनियम द्वारा कराधान प्रारम्भ हुआ।
- उच्च न्यायालय की स्थापना हुई।
मार्ले-मिन्टो सुधार (1909):-
- प्रांतो के साम्प्रदायिक पृथक निर्वाचन क्षेत्र के तहत, मुसलमानों को प्रथम निर्वाचन क्षेत्र
माण्टेस्क्यू चेमनफाॅर्ट सुधार (1919):-
- प्रांतो मे द्वैध शासन लागू
1935 का भारत शासन अधिनियम:-
- इस अधिनियम से लगभग 200 अनुच्छे भारतीय संविधान में लिए
- संवैधानिक विकास का अन्तिम अधिनियम यहीं था।
महत्वपूर्ण बिन्दु
- बंगाल का पहला गर्वनर लाॅर्ड क्लाइव था।
- भारत में ब्रिटीष शासन का संस्थापक लाॅर्ड क्लाइव था।
- भारत का पहला गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स था।
- भारत का पहला गर्वनर जनरल विलियम बैंटिंग था।
- सन् 1833 अधिनियम में गवर्नर को गवर्नर जनरल बना दिया गया।
- भारत का पहला वायसराय लाॅर्ड कैनिंग था।
- भारत का अन्तिम वायसराय लाॅर्ड माउण्टबेटन था।
1.सम्पूर्ण संसदीय व्यवस्था ब्रिटेन
2.मूल. अधिकार. अमेरीका
3.मूल कत्र्तव्य (42 वं संविधान संषोधन, 1976) स्वर्णसिंह समिति द्वारा 12 मूल कत्र्तव्य बताये गये सोवियत संघ
4.नीती निदेषक तत्व (भाग 4) (मूल निर्माता, स्पेन) आयरलैण्ड
5.राष्ट्रपति अमेरीका
6.संविधान संषोधन (अनुच्छेद 368) संषोधन की दो प्रकार की प्रक्रिया हैं। दक्षिण अफ्रिका
7.राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य का प्रावधान आयरलैण्ड
8.न्यायिक व्यवस्था एवं न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति (दोनो न्यायालय के पास हैं) संयुक्त राज्य अमेरीका
संघ सूची:-
- 99 विषय राज्य सूची:- 61 विषय समवर्ती सूची:- 52 विषय
- ये आस्ट्रेलिया से ली गयी हैं।
- भारतीय शासन प्रणाली संसदीय हैं।
- संघीय व्यवस्था कनाड़ा से ली गई हैं।
- भारत का संविधान संघात्मक हैं पर आत्मा एकात्मक हैं।
- एकल नागरिकता इंग्लैण्ड से ली गई हैं।
- एकीकृत शासन व्यवस्था किसी भी प्रकार की हों, ब्रिटेन से ली गई हैं।
अनुसूचियाँ :-
- अनुसूचियाँ 12 हैं।
- संविधान निर्माण के समय अनुसूचियां 8 थी।
- 1951 में 9 वीं अनुसूची में वो विषय हैं, जिसे उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय भी नहीं बदल सकता हैं।
- 10 वीं सूची 1989:- दल-बदल कानून (राजीव गांधी ने लागू की)
- 11 वीं सूची 1993 में बनी।
- 12 वीं सूची 1994 में बनी।
भाग 24 हैं।
भाग-1:- इसमें भारत के सभी राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेषों के नाम हैं।
भाग-2:- नागरीकता का प्रावधान हैंे।
भाग-3:- मूल अधिकार हैं।
भाग-4:- नीति निर्देषक तत्व हैं।
भाग-1. अनुच्छेद -1:-
- भारत राज्यों का संघ हैं।
- इण्डिया जो कि भारत हैं।
- स्ंविधान में भारत का नाम 2 बार हैं।
- प्रस्तावना मं देष का भारत हैं।
भाग-1 अनुच्छेद 2,3,4:-
- नए राज्यों का गठन, राज्यों की सेवाओं में परिवर्तन, नाम व सीमाओं में परिवर्तन का उल्लेख हैें।
- ये सभी कार्य संसद करती हैं।
भाग-2 अनुच्छेद 5-11:-
- इसमें नागरीकता हैं।
- नागरीकता संसद देती हैं।
मूल अधिकार (भाग -3, अनुच्छेद 12 से 35)
- समानता का अधिकार:- अनुच्छेद 14 से 18
- स्वतन्त्रता का अधिकार:- अनुच्छेद 19 से 22
- शोषण के विरूद्ध अधिकार:- अनुच्छेद 23 व 24
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार:- अनुच्छेद 25 से 28
- षिक्षा व संस्कृति का अधिकार:- अनुच्छेद 29 व 30
- सम्पत्ति का अधिकार:- अनुच्छेद 31
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार:- अनुच्छेद 32
नोट:-
1978 में 44 वे संविधान संषोधन द्वारा जनता पार्टी ने (प्रधानमंत्री:- मोरारजी देसाई ने) सम्पत्ती का मूल अधिकार समाप्त कर दिया और कानूनी (वैधानिक) अधिकार का दर्जा देकर अनुच्छेद 300 (क) में डाला।
सम्पत्ति को समाप्त करने का उद्देष्य समाजवादी समाज बनाना एवं गरीब व अमीर के बीच अन्तर कम करना था।
समानता का अधिकर (अनुच्छेद 14 से 18) :-
अनुच्छेद 14:-
- विधि के समक्ष समानता और विधियों का समान संरक्षण (कानून के सामने बराबरी का अधिकार)।
अनुच्छेद 15:- धर्म, जाति, वंष, लिंग, जन्म स्थान पर भेदभाव नहीं होगा।
अनुच्छेद 16:-लोक नियोजन में अवसर की समानता (सरकारी नौकरी में सभी को अवसर)।
अनुच्छेद 17:-अस्पृष्यता का अन्त (छूआछूत का अन्त), यह अनुच्छेद महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रेरीत हैं।
अनुच्छेद 18:- उपाधियों का अन्त (जैसे भारत रत्न, पद्म भूषण, पद्मश्री नाम के आगे नहीं लगेगी)
नोट:- सन् 1977 में जनता पाटी सरकार ने नागरीक सम्मानों को बन्द कर दिए, जो ऊपर दिए हैं।
स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22):-
अनुच्छेद 19:-
- विभिन्न प्रकार की स्वतन्त्रताए।
- वाक् अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता।
- भ्रमण की स्वतन्त्रता।
- किसी भी क्षेत्र में निवास की स्वतन्त्रता
- अजीविका (व्यवसाय) अपनाने की स्वतंत्रता
- संगठन बनाने की स्वतंत्रता
- सम्मेलन आयोजित करने की स्वतंत्रता
- सम्पत्ति अर्जन/ग्रहण करने की स्वतन्त्रता।
- सूचना के अधिकार की स्वतन्त्रता (अप्रैल, 2005 में लागू हुआ)
अनुच्छेद 20:- अपने विरूद्ध साक्ष्य देने की स्वतन्त्रता।
अनुच्छेद 21:-
प्राण व दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार इसमें अपने शरीर की रक्षा व सम्मानूपर्वक जीने का अधिकार यह आपात काल के समय भी अनुच्छेद 21 निलम्बित नहीं होगा।
अनुच्छेद 22:-
- गिरफ्तारी के विरूद्ध संरक्षण
शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 व 24):-
अनुच्छेद 23:-
- बलात् श्रम, मानव का दुःव्यापार (क्रय-विक्रय, अंगो का क्रय-विक्रय) बेगार, दास प्रथा, सागड़ी, बंधुआ मजदूरी
अनुच्छेद 24:-
6 से 14 वर्षं के बच्चों को कारखानों में काम करने पर रोक (बाल मजदूरी)
धार्मिंक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28):-
अनुच्छेद 25:-
अन्तः करण से किसी भी धर्म को स्वीकार:- जबरदस्ती धर्म परिवर्तन पर रोक लगा रखी हैं।
अनुच्छेद 26:- धर्म की अभिवृद्धि के लिए कार्य करना।
अनुच्छेद 27:- सरकार नागरीकों पर किसी भी प्रकार का धार्मिंक कर नहीं लगाएगा।
अनुच्छेद 28:- सरकारी, अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं, स्कूलों में किसी भी प्रकार का धार्मिंक पाठ्यक्रम धर्म-विषेष का कार्यक्रम नहीं होगा।
षिक्षा व संस्कृति का अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30):-
अनुच्छेद 29:-
अल्पसंख्यकों को अपनी षिक्षा, संस्कृति, धर्म, लिपि के संरक्षण का अधिकार
5 अल्पसंख्यक:- मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी व बौद्ध हैं।
अनुच्छेद 30:- संस्कृत पाठषालाएँ
संवैधानिक उपचारों का अधिकर (अनुच्छेद 32):-
- व्यक्ति या नागरीकों को मूल अधिकारों का हनन होने पर अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में व अनुच्छेद 226 के द्वारा उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती हैं।
- तब न्यायालय के द्वारा मूल अधिकार की रक्षा के लिए 5 प्रकार की रीट लगाई जा सकती हैं।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण रीट:- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करनता हैं।
- परमादेष:- अधिकारी अपने कत्र्तव्य को पूरा न करे तो कोर्ट उसे जारी करता हैं।
- अधिकार पृच्छा:- जब कोई अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करे तब न्यायालय के द्वारा उस कार्य को करने का अधिकार पूछा जाता है।
- प्रतिषेध:- कोर्ट निर्णय को रोकती है (अनुच्छेद 36)
- उत्प्रेषण:- कोर्ट निर्णय होने केउबाद रोकती हैं। (अनुच्छेद 38)
- अनुच्छेद 32 नागरीकों को तुरन्त न्याय प्रदान करता हैं।
- मूल अधिकार नागरीकों को राज्य के विरूद्ध प्राप्त हुए हैं (अनुच्छेद 12)।
- षिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 21 क में 2010 में लागू हुआ। 86 वें संविधान संषोधन द्वारा।
मूल अधिकार एवं नीती निदेषक तत्व में अन्तर
मूल अधिकार (भाग-3, अनुच्छेद 12 से 35)
नीती निदेषक तत्व (भाग-4, अनुच्छेद 36 से 51)
1. यह अमेरीका से लिए गए हैं।
1.यह आयरलैण्ड से लिए गए हैं।
2. ये राज्य के विरूद्ध नागरिको को संरक्षण प्रदान करते हैं।
2. नागरीकों को प्राप्त हैं, राज्य को इन्हे लागू करना स्वैच्छिक हैं।
3. राज्य के लिए पालन करना अनिवार्यहैं।
3. राज्य के द्वारा इन्हे लागू करना चाहिए।
4. ये नकारात्मक हैं।
4. ये सकारात्मक हैं।
5. राजनीतिक, आर्थिंक, सामाजिक, धार्मिंक हैं।
5. ये आर्थिंक व सामाजिक क्षेत्र से सम्बन्धित हैं।
6. न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय (लागू करना)
6. न्यायालय द्वारा लागू नहीं होते हैं।
7. वाद योग्य हैं
7. वाद योग्य नहीं हैं।
राज्य के नीति निदेषक तत्व (भाग -4, अनुव्छेद 36 से 51)
अनुच्छेद 36:- राज्य की परिभाषा
अनुच्छेद 38:- लोकल्याण की अभिवृद्धि के लिए राज्य के द्वारा सामाजिक व्यवस्था बनाई जाएगी जैसे आय की असमानता को कम करना, अवसरोें की असमानता को कम करना आदि।
अनुच्छेद 39:- समान न्याय और निःषुल्क कानूनी सहायता।
अनुच्छेद 40:- ग्राम पंचायतों का गठन (अनुच्छेद 243 में ग्राम पंचायत प्रावधान हैं )
अनुच्छेद 41:- विषेष दषा में काम, षिक्षा व लोक सहायता पाने का अधिकर… उदाहरण:- वृद्धावस्था, विकलांगता, बेरोजगारी।
अनुच्छेद 42:- प्रसूति की अवस्था में महिला को विषेष सहायता। उदाहरण:- 180 दिन का अवकाष (2 बच्चों तक)
पुरूषों को 15 दिन का अवकाष (वैतनीक)
अनुच्छेद 44:- समान नागरिक संहिता (गोवा में समान नागरीक संहिता हैं)
अनुच्छेद 45:- अनिवार्य निःषुल्क षिक्षा उपलब्ध करवाए।
अनुच्छेद 47:- लोगो के पोषण स्तर को ऊँचा उठाना
1. अच्छा भोजन 2. मादक द्रव्यों पर रोक 3. दवाईयाँ
अनुच्छेद 48:- पर्यावरण संरक्ष को बढ़ावा व वन व वन्य जीवों की रक्षा करना, कृषि व पशुपालन में तकनीकी विकास करना।
अनुच्छेद 49:- राष्ट्रीय सम्पत्ति, स्मारकों का सरंक्षण करना।
अनुच्छेद 50:- न्यायपालिका-कार्यपालिका को अलग-अलग करना।
अनुच्छेद 51:- अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा के लिए प्रयास करना।
मूल कत्र्तव्य ( भाग 4 क, अनुच्छेद 51 क)
- राष्ट्रीय प्रतीकों :- संविधान, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज के आदर्षों का सम्मान करे व
- उनका पालन करें।
- राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्षों को अपने हृदय में जगह दे।
- राष्ट्रीय एकता, अखण्डता बनाए रखे व उसकी रक्षा करें।
- देष की रक्षा करे, जरूरत पड़ने पर बलिदान को तैयार रहें।
- भाईचारा बढ़ाना व भेदभाव दूर करे, स्त्रीयां के विरूद्ध प्रथाओं का त्याग करें।
- देष के सामाजिक, संस्कृति के गौरव को महत्व दे।
- पर्यावरण, वन, झील, नदी, वन्य जीवों की रक्षा करे व संरक्षण करे, प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव रखें।
- वैज्ञानिक व मानववादी दृष्टिकोण रखें।
- सार्वजनिक सम्पत्ती की रक्षा करें।
- सामूहिक प्रयासों से विकास की ऊँचाईयों को छुए।
- अनिवार्य षिक्षा को लागू करना माता-पिता के द्वारा।
संसद
संसद के 3 अंग हैं: – 1. राष्ट्रपति 2. लोकसभा 3. राज्यसभा
राष्ट्रपति
अनुच्छेद 52 के अनुसार भारत का एक राष्ट्रपति होगा।
संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति के पास होती हैं।
वह इन शक्तियों का उपयोग अपने अधीनस्थ अधिकारियों व मंत्रीमण्डल की सहायता से करता हैं।
वास्तविक शक्तियाँ मन्त्रिमण्डल के पास होती हैें।
राष्ट्रपति गणतन्त्रात्मक हैं।
निवार्चक मण्डल:-
लोकसभा व राज्य सभा के निर्वाचित सदस्य।
विधानसभा के निर्वाचित सदस्य।
दिल्ली व पांडिचेरी कि विधानसभा के निर्वाचित सदस्य
नोट:- मनोनीत सदस्य निर्वाचन में शामिल नहीं होते हैं।
लोकसभा के 2 आंग्ल भारतीय मनोनीत होते हैं।
राज्य सभा के 12 आंग्ल भारतीय, विज्ञान, कला, सामाजिक सेवा से सम्बन्धित मनोनीत सदस्य
प्रत्येक विधानसभा में 1 सदस्य (आंग्ल भारतीय) राजयपाल के द्वारा निर्वाचित होता हैं।
राष्ट्रपति एकल संक्रमण आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली हैं।
योग्यता:- 35 वर्षं से ऊपर हों।
शपथ:-
उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीष दिलाता हैं।
मुख्य न्यायाधीष अल्तमष कबीर हैं।
कार्यकाल 5 वर्षं
एक व्यक्ति कितनी बार राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होगा, यह निर्धारित नहीं हैं।
महाभियोग (अनुच्छेद 61):-
कदाचार होने पर संसद राष्ट्रपति को पद से हटा सकती हैं।
महाभियोग किसी भी सदन में लाया जा सकता हैं।
दोनो सदनों के द्वारा अलग-अलग 2/3 बहुमत से (कुल सदस्य का) प्रस्ताव पारित करने पर राष्ट्रपति पद से हट जाएगा।
यह अमेरीका से लिया गया हैं।
वेतन :- 1,50,000 रु.
मुगल गार्डन राष्ट्रपति भवन पर हैं।
प्रायोगिक कृषि सारी यहीं पर हुई हैं (चैती, गुलाब, जोजोबा खेती)
संचित निधी से राष्ट्रपति को वेतन मिलता हैं।
राष्ट्रपति की शक्तियां:-
नियुक्ति से सम्बन्धित:-
प्रधानमंत्री व मंत्री की नियुक्ति
न्यायाधीषां की नियुक्तियां
निर्वाचन आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, वित्त आयोग, अनुसूचति जनजाति आयोग, अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति
CAG (नियंत्रक महालेखा परीक्षक), महान्यायवादी व महाधिवक्ता की नियुक्ति।
नोट:- उच्च न्यायालय मं सबसे ज्यादा न्यायाधीष इलाहबाद से व सबसे कम सिक्किम से हैं।
विदेषी राजदूतों की नियुक्ति
तीनों सेनापतीयों की नियुक्ति
केन्द्रषासित प्रदेषों में प्रषासकों की नियुक्ति
राज्यापालों की नियुक्ति (राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद पर रहता हैं)
भारत के सभी केन्द्रीय विष्वविद्यालयां का कुलाधिपती राष्ट्रपति होता हैं।
कार्यपालिका शक्तियां (विधायी शक्तियां):-
संसद का अधिवेषन बुलाना/सत्र बुलाना
अधिवेषन भंग करना/सत्रावसान
अधिवेषन के प्रारम्भ में संसद को संबोधित करना।
बजट पेष करवाना।
सभी प्रकार की रिपोर्ट संसद में पेष करना।
कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के बिना कानून नहीं बनेगा।
राष्ट्रपति साधारण विधेयक को 1 बार पुर्नविचार के लिए लौटा सकता हैं। दुबारा भेजने पर राष्ट्रपति अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं हैं।
अध्यादेष जारी करना:-
जब संसद का अधिवेषन न चल रहा हो और कोई कानून बनाना आवष्क हो जाए तब केबिनेट की अनुमति से राष्ट्रपति अध्यादेष जारी करेगा। ऐसा अध्यादेष संसद की बैठक के बाद 6 सप्ताह तक प्रभावी रहेगा। इसके बाद स्वतं ही निष्प्रभावी हो जाएगा।
राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय से किसी भी संवैधानिक प्रष्न पर राय मांग सकता हैं।
दण्ड-माफी की शक्तियाँ:- राष्ट्रपति मृत्युदण्ड को माफ कर सकता हैं, पर राज्यपाल नहीं।
लोकसभा एवं राज्यसभा में अन्तर
लोकसभा (निम्न सदन)
राज्यसभा (उच्च सदन)
1. यह अस्थाई सदन हैं।
1. यह स्थाई सदन हैं।
2. सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्षं का होता हैं।
2. सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्षं का होता हैं।
3. सदस्य की अधिकतम संख्या 552 हैं। 2026 तक यही रहेगें।
3. अधिकतम 250 सदस्य, इसमंे 238 निर्वाचित एवं 12 मनोनीत हैं।
4. वर्तमान में 545 हैं। निर्वाचित 543 हैं एवं मनोनीत 2 हैं।
4. वर्तमान में 545 सदस्य हैं।
लोकसभा अध्यक्ष:-
15 वीं लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमारी हैं। यह पहली महिला उपसभापति हैं।
लोकसभा का अध्यक्ष, लोकसभा का सदस्य होता हैं।
लोकसभा का अध्यक्ष पद की शपथ नहीं लेता हैं।
लोकसभा की समस्त कार्यवाही का संचालन करता हैं।
लोकसभा का उपाध्यक्ष करीया मुण्डा हैं, जो लोकसभा का सदस्य हैं।
लोकसभा के अध्यक्ष पद का निर्वाचन लोकसभा के सदस्य करते हैं।
राज्य सभा का सभापति:- डा. हामिद अंसारी हैं।
उपराष्ट्रपति इसका पदेन सभापति होता हैं।
उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सदस्य नहीं होता हैं।
उपसभापति:- के.रहमान खान, यह सदस्य होगा।
नोट:- लोकसभा अध्यक्ष व राज्यसभा का सभापति अपने-अपने सदन में सामानयतः मतदान में भाग नहीं लेते हैं। मत बराबर होने पर वे निर्णायक मत देगें।
लोकसभा व राज्यसभा की शक्तियाँ
वित्त विधेयक/धन विधेयक हमेषा लोकसभा में पारीत/प्रस्तुत होगा।
राज्यसभा धन विधेयक को केवल 14 दिन तक रोक सकती हैं।
धन विधेयक पर संयुक्त बैठक नहीं होती हैं।
संयुक्त बैठक राष्ट्रपति बुलाता हैं, संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करेगा।
साधारण विधेयक किसी भी सदन में पेष किया जा सकता हैं।
अगर कोई भी सदन ऐसे विधेयक पारित नहीं करता हैं और पुर्नविचार के लिए लौटा देता हैं एवं मतभेद 6 माह तक चलता रहे, तब संयुक्त बैठक बुलाई जाएगी।
राज्यसभा के विषेषाधिकार:-
अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन करने के लिए विधेयक सबसे पहले राज्यसभा में प्रस्तुत होगा (लोकसभा की अनुमति के लिए बाध्य)।
राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाने के लिए संसद को अधिकृत करना।
विधानपरिषद को किसी भी प्रकार की कोई शक्ति प्राप्त नहीं हैं। यह विलम्बनकारी संस्था हैं।
राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग नहीं लेती है।
विधान परिषद का अध्यक्ष इन्हीं में से कोई 1 होगा।
राज्यपाल
प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा। राज्य की समस्त कार्यपालीका शक्तियाँ राज्यपाल के पास होती हैं।
इन शक्तियों का उपयोग वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों व मंत्रीमण्डल की सहायता से करता हैं।
2 या 2 से अधिक राज्यों के लिए 1 राज्यपाल हो सकता हैं।
योग्यता:- उम्र 35 साल
कार्यकाल:- राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद पर रहता हैं।
शपथ उच्च न्यायालय का न्यायाधीष दिलाता हैं।
नियुक्ति:- राष्ट्रपति द्वारा
प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री की नियुक्ति होती हैं।
राष्ट्रपति व उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन होता हैं।
विधान परिषद व विधान सभा में अन्तर
विधान परिषद (उच्च सदन)
विधान सभा (निम्न सदन)
1. यह राज्यसभा की तरह स्थाई होती हैं।
1. यह लोकसभा की तरह अस्थाई होती हैं।
2. यह जम्मू-कष्मीर, बिहार, उत्तरप्रदेष,महाराष्ट्र, आंधप्रदेष (नवीन), कर्नाटक मे हैं।
2. भारत में 30 विधानसभा हैं।
3. सदस्य कार्यकाल 6 वर्ष होता हैं
3. सदस्य कार्यकाल 5 वर्ष होता हैं।
4. प्रत्येक 2 वर्षं बाद 1/3 सदस्य परिवर्तित होते हैं एवं इतने ही वापस निर्वाचित हो जाते हैं।
4. यह 5 वर्षं बाद या उससे पहले या कभी भी भंग हो सकती हैं।
5. सम्बन्धित विधानसभा के सदस्यों का 1/3 होता है।
5. अधिकतम 500 सदस्य हैं।
6. न्यूनतम 40 सदस्य होते हैं।
6. न्यूनतम 60 सदस्य होते हैं।
7. अप्रत्यक्ष निर्वाचन होता हैं, जो निम्न प्रणाली से होता हैं:- 1/6 सदस्य राज्यपाल के द्वारा मनोनीत होते हैं। कुछ सदस्य स्थानीय निकायों, जल बोर्ड़, विद्युत बोर्ड़ एवं छात्रसंघ से बने निर्वाचन मण्डल के द्वारा निर्वाचित होते हैं। कुछ सदस्य माध्यमिक स्तर एवं उसके ऊपर के अध्यापकों से बने निर्वाचक मण्डल के द्वारा निर्वाचित होते हैं। कुछ सदस्य M.L.A के द्वारा निर्वांचित होते हैं।
राजस्थान की सभ्यताएँ
राजस्थान की सभ्यताएँ
राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ
ताम्रयुगीन सभ्यता
लौहयुगीन सभ्यता
राजस्थान की ताम्रयुगीन सभ्यताएँ:-
कालीबंगा:-
कालीबंगा स्थल हनुमानगढ़ जिले में हैं। इसका शाब्दिक अर्थ हैं काली चूड़ियाँ (सिन्धु लिपि का शब्द) है।
यह एक नगरीय सभ्यता थी जो तत्कालीन सरस्वती और दृष्द्धती नदियों के किनारे पनपी वर्तमान में घग्घर नदी के तट पर स्थित हैं।
कालीबंगा की खोज अमलानन्द घोष ने सन् 1952 में की। इसके उत्खनन का कार्य बी.बी.लाल एव बी. के.थापर ने किया।
कालीबंगा एक किलेबन्द बस्ती थी। इसका परकोटा कच्ची ईंटों का था।
कालीबंगा से प्राकहड़प्पा व हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवषेष मिलें हैं।
प्राक हड़प्पा कच्ची बस्ती थी जो चारों ओर परकोटों से सुरक्षित थी। प्राकहड़प्पा से जूते हुए खेतों के प्रमाण, गेहूँ और जौं के साक्ष्य मिलें हैं।
हड़प्पाकालीन संस्कृति:-
पष्चिम का टीला:- उच्च टीला, निम्न गढ़, दुर्गराजा, प्रषासनिक वर्ग, धर्मगुरू
पूर्व का टीला:- पूर्व का टीला, नगरीयगढ़, निम्न टिला
पूर्व के टिलें से सात अग्निवेदिया मिली हैं, जो धर्म अनुष्ठान के प्रतीक हैं।
कालीबंगा से तांबा हड़प्पावासीयों को भेजा जाता था। कालीबंगा के उत्खनन से मिली सामग्री में मिट्टी के बर्तन, बेल की खण्डित मूर्ति, शंख, मणके, चुड़िया आदि प्रमुख हैं।
आहड़ सभ्यता:-
आहड़ जयपुर से 2/3 मील दूरी पर स्थित एक कस्बा हैं, जो बनास व बेड़च के संगम पर स्थित हैं।
आहड़ सभ्यता को ‘ताम्रवती नगरी’, ‘बनास संस्कृति’ तथा स्थानीय भाषा में ‘धूलकोट’ कहते हैं।
इसी खोज सन् 1854 में आर.सी.अग्रवाल (रतनचन्द) ने की थी एवं इसका उत्खनन एच.डी.सांकलिवया ने किया था।
आहड़ सभ्यता का फैलाव उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा व डूंगरपुर में था।
यहां ताम्र उद्योग विकसित अवस्था में था। यहां से ताम्रछल्ले, चुड़िया, सुरमा डालने की सलाइयां मिले हैं।
आहड़ सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता थीं। यहां पर गेहूँ, जौ, चावल आदि उगाया जाता था।
गणेषवर सभ्यता:-
यह ‘नीम का थाना’ सीकर में कान्तली नदी के किनारे पनपी थी ।
इसकी खोज आर.सी.अग्रवाल (रतनचन्द) ने की थी।
गणेष्वर सभ्यता को ‘‘ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी’’ कहते हैं।
यहां पर तीर, भालें, कुल्हाड़िया आदि मिलें हैं।
राजस्थान की लौहयुगीन सभ्यता:-
बैराठ (जयपुर):-
यह एक लौहयुगीन सभ्यता हैं। इसका प्राचीन नाम विराटनगर हैं। यह प्राचीन मत्स्य जनपद की राजधानी थी।
यहां से मध्यपाषाणकालीन उपकरण मिलें हैं।
बैराठ से स्वास्तिक व अषोक का भाब्रु षिलालेख मिलें हैं।
कैप्टन बर्ट ने यहां बिजक की पहाड़ियों को खोजा, जिसे उन्होने बिजक डूंगरी नाम दिया।
बैराठ से मौर्यकालीन सभ्यता के अवषेष भी मिले हैं।
अषोक का भाब्रु षिलालेख ब्राह्यमी लिपी में लिया गया हैं। अषोक के मुल 13 षिलालेख हैं।
नोह (भरतपुर):-
यहां से कुषाणकालीन व मौर्यकालीन सभ्यता के अवषेष मिलें हैं।
रेढ़ (टोंक):-
इसे प्राचीन राजस्थान का टाटानगर कहते हैं।
यहां से लौह-अयस्क के अवषेष प्राप्त हुए हैं। पूर्व गुप्तकालीन सभ्यता के अवषेष मिलें हैं।
सुनारी (झुंझुनूं):-
यह एक लौहयुगीन सभ्यता हैं। यहां से लोहे की भट्टीया मिली हैं।
रंगमहल:-
यह हनुमानगढ़ में घग्घर नदी के तट पर स्थित हैं।
इसकी खोज स्वीडष दल ने की यहां से कुषाणकालीन और गुप्तकालीन सभ्यता के अवषेष मिलें हैं।
यह एक ताम्रयुगीन सभ्यता हैं।
बालाथल:-
यह उदयपुर के वल्लभनगर तहसील में स्थित ताम्रयुगीन सभ्यता हैं।
इसकी खोज वी.एन.मिश्रा ने की थी।
इस सभ्यता के लोग बर्तन बनाने की कला में निपुण थें।
बागौर:-
यह भीलवाड़ा में स्थित हैं।
यहां पर उत्तरपाषाणकालीन संस्कृति के अवषेष मिलें हैं।
बागौर कोठारी नदी के तट पर स्थित हैं।
यहां के लोग आखेट पर निर्भर रहते थे।
सौथीं:-
यह बीकानेर में स्थित हैं।
इसकी खोज अमलानन्द घोष ने की थी।
यह कालीबंगा प्रथम के नाम से जानी जाती हैं।
नगर:-
यह टोंक में स्थित हैं। यहां से मालव सिक्के मिले हैं।
नगरी:-
यह चित्तौड़गढ़ में स्थित हैं।
इसका प्राचीन नाम माध्यमिका था।
यहां से षिवि जनपद के अवषेष मिले हैं।
राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ
ताम्रयुगीन सभ्यता
लौहयुगीन सभ्यता
राजस्थान की ताम्रयुगीन सभ्यताएँ:-
कालीबंगा:-
कालीबंगा स्थल हनुमानगढ़ जिले में हैं। इसका शाब्दिक अर्थ हैं काली चूड़ियाँ (सिन्धु लिपि का शब्द) है।
यह एक नगरीय सभ्यता थी जो तत्कालीन सरस्वती और दृष्द्धती नदियों के किनारे पनपी वर्तमान में घग्घर नदी के तट पर स्थित हैं।
कालीबंगा की खोज अमलानन्द घोष ने सन् 1952 में की। इसके उत्खनन का कार्य बी.बी.लाल एव बी. के.थापर ने किया।
कालीबंगा एक किलेबन्द बस्ती थी। इसका परकोटा कच्ची ईंटों का था।
कालीबंगा से प्राकहड़प्पा व हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवषेष मिलें हैं।
प्राक हड़प्पा कच्ची बस्ती थी जो चारों ओर परकोटों से सुरक्षित थी। प्राकहड़प्पा से जूते हुए खेतों के प्रमाण, गेहूँ और जौं के साक्ष्य मिलें हैं।
हड़प्पाकालीन संस्कृति:-
पष्चिम का टीला:- उच्च टीला, निम्न गढ़, दुर्गराजा, प्रषासनिक वर्ग, धर्मगुरू
पूर्व का टीला:- पूर्व का टीला, नगरीयगढ़, निम्न टिला
पूर्व के टिलें से सात अग्निवेदिया मिली हैं, जो धर्म अनुष्ठान के प्रतीक हैं।
कालीबंगा से तांबा हड़प्पावासीयों को भेजा जाता था। कालीबंगा के उत्खनन से मिली सामग्री में मिट्टी के बर्तन, बेल की खण्डित मूर्ति, शंख, मणके, चुड़िया आदि प्रमुख हैं।
आहड़ सभ्यता:-
आहड़ जयपुर से 2/3 मील दूरी पर स्थित एक कस्बा हैं, जो बनास व बेड़च के संगम पर स्थित हैं।
आहड़ सभ्यता को ‘ताम्रवती नगरी’, ‘बनास संस्कृति’ तथा स्थानीय भाषा में ‘धूलकोट’ कहते हैं।
इसी खोज सन् 1854 में आर.सी.अग्रवाल (रतनचन्द) ने की थी एवं इसका उत्खनन एच.डी.सांकलिवया ने किया था।
आहड़ सभ्यता का फैलाव उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा व डूंगरपुर में था।
यहां ताम्र उद्योग विकसित अवस्था में था। यहां से ताम्रछल्ले, चुड़िया, सुरमा डालने की सलाइयां मिले हैं।
आहड़ सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता थीं। यहां पर गेहूँ, जौ, चावल आदि उगाया जाता था।
गणेषवर सभ्यता:-
यह ‘नीम का थाना’ सीकर में कान्तली नदी के किनारे पनपी थी ।
इसकी खोज आर.सी.अग्रवाल (रतनचन्द) ने की थी।
गणेष्वर सभ्यता को ‘‘ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी’’ कहते हैं।
यहां पर तीर, भालें, कुल्हाड़िया आदि मिलें हैं।
राजस्थान की लौहयुगीन सभ्यता:-
बैराठ (जयपुर):-
यह एक लौहयुगीन सभ्यता हैं। इसका प्राचीन नाम विराटनगर हैं। यह प्राचीन मत्स्य जनपद की राजधानी थी।
यहां से मध्यपाषाणकालीन उपकरण मिलें हैं।
बैराठ से स्वास्तिक व अषोक का भाब्रु षिलालेख मिलें हैं।
कैप्टन बर्ट ने यहां बिजक की पहाड़ियों को खोजा, जिसे उन्होने बिजक डूंगरी नाम दिया।
बैराठ से मौर्यकालीन सभ्यता के अवषेष भी मिले हैं।
अषोक का भाब्रु षिलालेख ब्राह्यमी लिपी में लिया गया हैं। अषोक के मुल 13 षिलालेख हैं।
नोह (भरतपुर):-
यहां से कुषाणकालीन व मौर्यकालीन सभ्यता के अवषेष मिलें हैं।
रेढ़ (टोंक):-
इसे प्राचीन राजस्थान का टाटानगर कहते हैं।
यहां से लौह-अयस्क के अवषेष प्राप्त हुए हैं। पूर्व गुप्तकालीन सभ्यता के अवषेष मिलें हैं।
सुनारी (झुंझुनूं):-
यह एक लौहयुगीन सभ्यता हैं। यहां से लोहे की भट्टीया मिली हैं।
रंगमहल:-
यह हनुमानगढ़ में घग्घर नदी के तट पर स्थित हैं।
इसकी खोज स्वीडष दल ने की यहां से कुषाणकालीन और गुप्तकालीन सभ्यता के अवषेष मिलें हैं।
यह एक ताम्रयुगीन सभ्यता हैं।
बालाथल:-
यह उदयपुर के वल्लभनगर तहसील में स्थित ताम्रयुगीन सभ्यता हैं।
इसकी खोज वी.एन.मिश्रा ने की थी।
इस सभ्यता के लोग बर्तन बनाने की कला में निपुण थें।
बागौर:-
यह भीलवाड़ा में स्थित हैं।
यहां पर उत्तरपाषाणकालीन संस्कृति के अवषेष मिलें हैं।
बागौर कोठारी नदी के तट पर स्थित हैं।
यहां के लोग आखेट पर निर्भर रहते थे।
सौथीं:-
यह बीकानेर में स्थित हैं।
इसकी खोज अमलानन्द घोष ने की थी।
यह कालीबंगा प्रथम के नाम से जानी जाती हैं।
नगर:-
यह टोंक में स्थित हैं। यहां से मालव सिक्के मिले हैं।
नगरी:-
यह चित्तौड़गढ़ में स्थित हैं।
इसका प्राचीन नाम माध्यमिका था।
यहां से षिवि जनपद के अवषेष मिले हैं।
राजस्थान के प्रमुख शासक
प्रतिहार वंष के प्रमुख शासक
नागभट्ट प्रथम:-
इन्होने अपनी राजधानी मण्डौर से हटाकर मेड़ता की।
इन्होने अरबों को परास्त किया था।
ग्वालियर प्रषस्ति में इन्हे नारायण की उपाधि दी गई थी।
नागभट्ट द्वितीय:-
इन्होने पाल प्रतिहार और राष्ट्रकूट के त्रिकोणीय संघर्षं में कन्नौज में भाग लिया था।
मिहिर भोज:-
इन्हे ‘आदि वराह’ और ‘प्रभास’ की उपाधियों से सुषोभित किया गया था।
यह वैष्णव धर्म के अनुयायी थें।
इन्ही के समय अरबी यात्री सुलेमान आया था।
इन्होने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को पराजित किया था।
इन्होनें चांदी के सिक्के चलायें जिन्हे ‘द्रम्म’ कहा जाता था।
महेन्द्रपाल प्रथम:-
प्रसिद्ध कवि ‘राजषेखर’ इनके दरबारी कवि थें।
राजषेखर ने कर्पूरमंजरी, हरविलास, विद्वषःष्लाका की रचना की।
इन्होने राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय को परास्त किया। कवि राजषेखर ने इस काल को अमर बना दिया। इन्हीं के शासनकाल में प्रतिहार वंष की अभूतपूर्व उन्नति हुई।
महिपाल:-
राजषेखर थोड़े समय के लिए इनके शासनकाल में भी रहें।
इन्हीं के शासनकाल में बगदाद निवासी अलमसूदी आया था
इनके समय में गुर्जर साम्राज्य का तन प्रारम्भ हुआ था।
प्रतिहारों की उपलब्धियां:-
प्रतिहार विष्णु, षिव, शक्ति के उपासके थें।
इन्होने खुजराहों के मंदिरों का निर्माण किया।
राजस्थान में भी इन्होने मन्दिर बनवाए।
ओसियां का जैन मन्दिर प्रतिहारों की देन हैं।
प्रतिहार वंष की महत्वपूर्ण विभूतियां:-
राजषेखर
कवि पम्पा (तमिल कवि तमिल रामायण के रचियता)
जैन आचार्य जिनसेन
राठौड़ वंष का इतिहास
राठौड़ शब्द राष्ट्रकूट से बना हैं, जो दक्षिण की एक जाती थी।
राठौड़ वंष की नींव राव सीहा ने 13 वी संदी में रखी थी।
बीठ षिलालेख के अनुसार पाली एवं उसके आसपास का क्षेत्र राठौड़ों का राज्य था।
मुहणोत नैणसी राठौड़ों को कन्नोज के शासक जयचन्द गहड़वाल का वंषज मानते हैं।
मुख्यतः राठौड़ी राज राजस्थान के उत्तर-पष्चिम भाग में था।
जोधपुर के राठौड़:-
राव चुड़ा:-
वीरमदेव के पुत्र थे। इन्होने मण्डोर दुर्ग जीता और जोधपुर में राठौड़ वंष की नीवं डाली।
रणमल:-
यह चुड़ा के ज्येष्ठ पुत्र थे लेकिन चुड़ा ने अपना उत्तराधिकारी रणमल को न बनाकर कान्हा को बनाया।
जिससे रणमल नाराज होर मेवाड़ के राणा लाखा की सेवा में चला गया।
रणमल ने अपनी बहन हंसाबाई का विवाह राणा लाखा से किया।
रणमल की हत्या महाराणा कुम्भा ने सन् 1438 में की थी।
रावजोधा (1438-1489 ई.):-
यह रणमल के पुत्र थे।
इन्होने 1459 ई. में चिड़ियाटुक की पहाड़ी पर जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़) का निर्माण करवाया।
मालदेव (1531-62):-
इनके पिता गांगदेव थे।
इनकी माता सिरोही के देवड़ा शासक जगमाल की पुत्री थी।
इनकी पत्नी उमादे (रूठी राणी) जैसलमेर के शासक लुणकरण की पुत्री थी, शादी के दिन से ही आजीवन तारागढ़ (अजमेर) में रहीं।
मालदेव ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा का साथ दिया था।
मालदेव का राज्याभिषेक 1531 ई. में हुआ था।
फारसी इतिहासकार इसे ‘हषमतवाला राजा’ कहते थें।
हुँमायू मालदेव के समकालीन थे।
1544 ई. में गिरी सुमेल (अजमेर) में मालदेव व शेरषाह सूरी के मध्य युद्ध लड़ा गया जिसमें शेरषाह सूरी विजय रहा
‘‘मैने एक मुठ्ठीभर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादषाहत को दाव पर लगा दिया।’’ यह कथन शेरशाह सूरी का है जो गिरी सुमेल/जैतारण के युद्ध के दौरान कहा था।
साहेबा का युद्ध (बीकानेर):-
यह युद्ध 1541 ई. में मालदेव के विष्वसनीय सेनानायक कुपा व बीकानेर के शासक जैतसी के मध्य हुआ, जिसमें जैतसी शहीद हुए।
इस युद्ध का वर्णन जैतसी रां छंद (बीठू सूजा) कृति में मिलता हैं।
मालदेव की उपाधियाँ:-
इन्होने पोकरण का किला मालकोट (मेड़ता) और सोजत (पाली) का किला बनवाया।
यह साहित्य के महान संरक्षक थे।
मलदीव के समय में प्रमुख कृति लघुस्तवराज लिखी गयी।
इसके समय में जिन प्रमुख ग्रन्थों की रचना हुई वे थे आषा बारहठ के गीत, आसिया के दोहें, ईष्रदास के सोरठें, रत्नसिंह की बेली (जीवनी बेली विगत)
मालदेव के समय में स्थापत्यकला पर कुंभा (मेवाड़) और मुगलषैली का प्रभाव था।
साहित्यार इसे हिन्दु बादषाह कहते हैं।
अबुल फजल ने ‘आइने अकबरी’ में इसी भूरी-भूरी प्रषंसा की हैं।
चन्द्रसेन (1562-81):-
इसे मारवाड़ का महाराणाप्रताप भी कहा जाता हैं।
इसने सन् 1562 में जोधपुरी गद्दी संभाली थी।
चन्द्रसेन ने अकबर की आधीनता कभी स्वीकार नहीं की।
अकबर से 18 वर्षों तक जोधपुर की रक्षा की
नाड़ोल (पाली) का युद्ध:-
चन्द्रसेन व राम के मध्य हुआ, जिसमें चन्द्रसेन विजय रहें।
चन्द्रसेन ने रामदेव को सोजत की जागीर दी।
सन् 1570 में अकबर ने नागौर दरबार आयोजित किया, जिसमें सभी राजाओं को आमंत्रित किया गया।
चन्द्रसेन भी उपस्थित हुए लेकिन उन्होने अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की व जोधपुर छोड़र भद्राजुण (जालौर) चले गए।
अकबर ने खानें कला भद्राजूण पर आक्रमण के लिए भेजा तो चन्द्रसेन यहां से सिवाणा चले गए। चन्द्रसेन आजीवन जालौर की पहाड़ियों में छुपते रहे और अन्त में इन्हे एक राठौर सरदार बैरसल ने 1581 ई. में जहर दे दिया।
मोटा राजा उदयसिंह (1583-95):-
यह मालदेव के पुत्र थें। यह प्रथम राठौड़ शासक था जिसने मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थें।
उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानबाई (जगतगुसाई) का विवाह सलीम से किया था।
महाराजा जसवंत सिंह (1638-78):-
इनका राजतिलक आगरा मंे हुआ था।
इन्हें शाहजहां ने ‘‘महाराजा’’ की उपाधि दी थी।
मुहणोत नैणसी इनके दरबारी कवि थें।
जसवंतसिंह ने भाषाभूषण ग्रन्थ की रचना की थी।
इनकी मृत्यु अफगानिस्तान के जामरूद नामक स्थान पर हुई थी।
इनकी मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा कि ‘‘आज कूफ्र (धर्म विरोधी) का दरवाजा टूट गया’’।
अजीत सिंह (1679-1724 ईं):-
अजीतसिंह जसवंतसिंह के पुत्र थे।
वीर दुर्गादास राठौड़ ने इन्हे औरंगजेब की जेल से मुक्त करवाया एवं जोधपुर का शासक बनाया था।
अजीतसिंह साहित्यकार थे। इन्होने ‘‘अजीत चरित्र’’ ‘‘गुणसा निर्वाण दूहा’’ की रचना की थी।
अजीतसिंह ने मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थे।
फर्रूखसियर से अपनी पुत्री इन्द्रकंवर का विवाह किया था।
अजीतसिंह का स्थापत्य:- फतहमहल (जोधपुर), घनष्यामजी का मन्दिर (जोधपुर), जसवंतथड़ा (राजस्थान का ताजमहल)
महाराजा मानसिंह (1803-1843 ई.):-
इनका राज्याभिषेक 1803 ई. में हुआ था।
इन्हे गौरख सम्प्रदाय के गुरू ‘आयसदेवनाथ’ के आर्षिवाद से जोधपुर की गद्दी मिली थी।
मानसिंह ने जोधपुर में नाथ सम्प्रदाय की स्थापना की।
इन्होने जोधपुर में महामंदिर का निर्माण करवाया, जो नाथ सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं।
बीकानेर के राठौड़
राव बीका (1465-1504 ई.):-
इन्होने 1465 ई. में बीकानेर की नींव रखी थी। यह राव जोधा के पुत्र थे। किले की नींव 1468 ईं. में रखी थी।
राव लुणकरण:-
इन्होने नागौर के शासक मोहम्मद खां को हराया था। इन्हे ‘‘कलियुग का कर्ण’’ कहा जाता हैं।
राव जैतसी:-
यह बीकानेर के प्रतापी शासक थे। इनके समय में 1541 ईं. में साहेबा का युद्ध हुआ था।
इस युद्ध में मालदेव ने आक्रमण किया था एवं नेतृत्व कुंपा ने किया, इसमे जैतसी वीरगती को प्राप्त हुए।
इस युद्ध का वर्णन जैतसी रा छंद (बीठूसूजा) में किया गया हैं।
रावकल्याण:-
1570 ईं. मे अकबर ने नागौर में दरबार लगाया। राव कल्याणमल ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली।
रायसिंह (1574-1612):-
इनका राज्याभिषेक 1574 ईं. में हुआ था।
1572 ईं. में अकबर ने इन्हे जोधपुर का शासन दिया। इन्होने महाराज, महाराजाधिराज जैसी उपाधियां धारण की।
यह गुजरात अभियान में अकबर के साथ थे। सिरोही (सुल्ताभ) व जालौर (ताजखां) अभियान का नेतृत्व रायसिंह ने किया था।
काबुल का विद्रोह:-
1580ई. में काबुल अभियान मंे अकबर ने मिर्जा हकीम के विद्रोह को दबाने के लिए रायसिंह को भेजा, रायसिंह विजयी रहें।
1585 ई. में बलुचियों का विद्रोह दबाने के लिए रायसिंह को भेजा गया तथा उन्हे सफलता मिली।
अकबर ने खुष होकर इन्हे भटनेर की जागीर प्रदान की।
रायसिंह साहित्य व कला के संरक्षक थे। इसने रायसिंह महौत्स, ज्योतिषरत्नमाला नामक ग्रंन्थों की रचना की। ये अकबर व जहांगीर के समकालीन थे।
रायसिंह ने बीकानेर के सुदृढ़ किले का निर्माण करवाया और हंसी के किले के अन्दर राजप्रषस्ति लिखवाई।
महाराजा कर्णंसिंह (1631-1669 ई.):-
औरंगजेब ने इन्हें जांगलधर बादषाह की उपाधि प्रदान की।
कल्पद्रुभ व कर्णभुषण नामक ग्रन्थों की रचना की।
महाराजा अनुपसिंह (1669-98 ई.):-
इन्हे औरंगजेब ने महाराजा की उपाधि दी।
इन्हे ‘महीभरातिव’ क उपाधि भी दी गई, दक्षिण विजय के उपलक्ष्य में।
अनुपसिंह विद्वान एवं कूटनितिज्ञ थें। इन्होने अनुपविवेक, कामप्रबोध, अनुपोदय ग्रंन्थों की रचना संस्कृत में की थी।
अनुपविलास भी इन्हीं की पुस्तक हैं।
सूरतसिंह ने ईस्ट इण्डिया कंपनी से संधि की थी।
चैहान वंष
अजमेर/षाकम्बरी के चैहान:-
चैहानों का मूल स्थान जांगलदेष में सांभर के आसपास का क्षेत्र था।
गुर्जरों के पतन के बाद चाहमान का उत्कर्षं हुआ।
जयानक (पृथ्वीराज विजय) के अनुसार चैहान सूर्यवंषी थें।
आबू षिलालेख के अनुसार ये चन्द्रवंषी थे।
कर्नल टाॅड के अनुसार ये विदेषी थे।
चन्द्रबरदायी के अनुसार चैहान अग्निवंषी थे।
इनकी प्रारम्भिक राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी।
‘हर्षनाथ’ चैहानों के कुलदेवता हैं।
शाकम्बरी के चैहान:-
वासुदेव चैहान:-
बिजौलिया षिलालेख के अनुसार यह चैहानवंष का संस्थापक था।
वासुदेव ने शाकम्बरी चैहान वंष की नींव रखी, जिन्होने सांभर झील का निर्माण करवाया।
विग्रहराज द्वितीय:-
इन्होने चालुक्य शासक मूलराज को कर देने के लिए विवष किया।
इनके शासन की जानकारी हर्षनाथ का षिलालेख से मिलती हैं।
अजमेर के चैहान:-
अजयपाल:-
अजमेर में चैहान वंष की नींव 1113 ईं. में अजयपाल ने रखी थी। इन्होने अजमेर दुर्ग बनाया एवं चांदी के सिक्के चलाए, जिन पर ‘‘श्री अजयदेव’’ अंकित हैं।
अर्णोंराज:-
यह अजयपाल के पुत्र थे। इनके समय में तुर्कों का केन्द्र अजमेर था।
तुर्कों व अर्णोंराज के बीच कई युद्ध हुए जिसमें अर्णोंराज विजय रहें।
अजमेर में अर्णोंराज ने आनासागर झील का निर्माण करवाया, पुष्कर में वराह मन्दिर का निर्माण करवाया।
विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव):-
इनको कविबांधव के नाम से जाना जाता हैं।
यह विद्वानों के आश्रयदाता थें।
अजमेर में संस्कृत पाठषाला बनवाई।
जिस पर हरकेली (षिव, पार्वती) नाटक सामदेव लिखवाया (सरस्वती कंठाभरण)।
इसी पाठषाला को तुड़ाकर कुतुबुद्दीन ऐबक ने अढ़ाई दिन का झोपड़ा बनवाया। यहां ढ़ाई दिन का उर्स लगता हैं।
इन्होने अजमेर में बीसलसागर बांध बनवाया।
पृथ्वीराज द्वितीय
सोमेष्वर
पृथ्वीराज तृतीय:-
इनका जन्म 1166 ई. में हुआ था। यह सोमेष्वर व कर्पूरीदेवी की संतान थे।
इनका राज्याभिषेक 1178 ई. में हुआ था।
इन्होने दिग्विजय अभियान चलाया एवं साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई।
नागार्जुन के विद्रोह का दमन:-
अपने चचेरे भाई नागार्जुन के विद्रोह को दबाया।
इन्होने 1182 ई. में भण्डनायकों के विद्रोह का दमन किया। यह एक मध्यएषिया की जाति थी जिसने पंजाब (सतलज) क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था।
महोब विजय:-
महोब के राजा परमार्दिदेव के सेनानायक आल्हा व उदल ने सेना का नेतृत्व किया था।
1186 से 1191 तक पृथ्वीराज ने गौरी को कई बार परास्त किया।
तराइन का युद्ध (करनाल, हरियाणा) (1191):-गौरी एवं पृथ्वीराज तृतीय के मध्य हुआ
तराइन का युद्ध (1192):- गौरी एवं पृथ्वीराज तृतीय के मध्य हुआ।
पृथ्वीराज को इतिहास में रायपिथौरा भी कहा जाता हैं। यह विद्वानों का आश्रयदाता था।
प्रमुख विद्वान जयानक, जनार्दन, वाग्ष्विर, चन्द्रबरदाई।
पृथ्वीराज रासों के अनुसार पृथ्वीराज चैहान ने गौरी को 23 बार पराजित किया। चन्द्रबरदाई पृथ्वीराज के सच्चे मित्र थें। इन्होने पृथ्वीराज को शत्रु से दूरी बताने के लिए कुछ शब्दभेदी श्लोक बोला जो निम्न हैं:-
‘‘आंठ बांव बत्तीसगज अंगुल अष्ट प्रमाण’’
इन्ही के समय में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिष्ती भारत आए थे।
रणथम्भौर के चैहान:-
रणथम्भौर मे चैहानवंष की नींव पृथ्वीराज तृतीय के पुत्र गोविन्दराज ने रखी थी।
हम्मीरदेव:-
हम्मीर हंस वंष के प्रतापी शासक थे एवं जैत्तसिंह के पुत्र थे।
जैत्तसिंह ने परमार, मुसलमान को परास्त किया था।
हम्मीर के शासन की जानकारी हम्मीर महाकाव्य सुर्जनचरित से मिलती हैं। इनकी जानकारी हम्मिररासों (जोधराज), हम्मिरहठ (चन्द्रषेखर) से मिलती हैं।
हम्मीर ने भी दिग्विजय अभियान अपनाया। रणथम्बौर की सीमाओं का विस्तार किया। माण्डलगढ़ से कर वसूल किया।
चित्तौड़, आबु, चम्पा क्षेत्र विजय कियें
हम्मीर/अलाउद्दीन खिलजी:-
हम्मीर ने खिलजी के सेनानायक मुहम्मदषाह को शरदण दी थी।
1299 इं. में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनापति उलगु खां व नुसरत खां के साथ सेनाएँ भेजी।
इन्होनें झाँइन तक तो अधिकार कर लिया, लेकिन रणथम्भौर को नहीं जीत सकें।
इस अभियान में नुसरत खां की मृत्यु हो गई एवं उलुग खां वापस चला गया।
इस युद्ध में पारिब और गरगच यन्त्रों का प्रयोग किया गया।
अलाउद्दीन खिलजी ने छल-कपट से हम्मीर के सेनापति रतिपाल व रणमल को अपनी तरफ मिला लिया। 11 जुलाई, 1301 को रणथम्भौर का युद्ध हुआ। जिसमें खिलजी विजयी रहें।
इतिहास का प्रथम शाका हम्मीर की पत्नी रंगदेवी ने किया जो जलजौहर था।
जालौर के चैहान (सोनगरा चैहान):-
जालौर में चैहान वंष की नींव किर्तीपाल ने रखी थी।
यह राजस्थान के दक्षिण-पष्चिम में हैं।
इसका प्राचीन नाम जाबलीपुर हैं।
अलाउद्दीन खिलजी ने इसका नाम जलालाबाद रखा।
कान्हड़देव और खिलजी
जालौर और सल्तनत की जानकारी कान्हड़देव प्रबन्ध में तथा तारिख-ए-फरिष्ता से मिलती हैं।
1297 ई. में कान्हड़देव एवं अलाउद्दीन खिलजी के मध्य युद्ध लड़ा गया। इसमें कान्हड़देव विजयी हुये। इस युद्ध का वर्णन मकराना षिलालेख में मिलता हैं।
1305 ईं. में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनानायक मुल्तानी को जालौर पर आक्रमण केलिए भेजा। लेकिन मुल्तानी एक चतुर सेनानायक था। उसने कान्हड़देव को खिलजी की अधीनता स्वीकार करने के लिए मना लिया। कान्हड़ेदव जब खिलजी के दरबार में उपस्थित हुआ तो अलाउद्दीन खिलजी ने उसका सम्मान नहीं किया और कान्हड़देव युद्ध की चुनौती देकर वहां से चला गया।
1311 ई. में कान्हड़देव व खिलजी के मध्य युद्ध हुआ जिसमें खिलजी विजय हुआ। इस युद्ध का वर्णन कान्हड़देव प्रबन्ध में मिलता हैं।
मुहणोत नैणसी इस युद्ध का कारण बीरमदवे और फिरोजा के प्रेम प्रसंग को बताया हैें।
1308 ई.में जालौर जाते समय रास्ते में सिवाणा का आक्रमण शीतलदेव एवं खिलजी के मध्य युद्ध हुआ। जिसमें खिलजी के सेनानायक नाहर खां मारे गए एवं खिलजी विजय रहा।
अलाउद्दीन खिलजी ने छल-कपट से शीतलदेव के सेनानायक को अपनी तरफ मिला लिया।
1308 का शाका हुआ, यह जालौर का पहला शाका था।
जालौर युद्ध में कान्हड़देव परिवार के सदस्य को अलाउद्दीन खिलजी ने कुछ समय के लिए चित्तौड़ का कार्यभार दिया।
अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर में अलाई दरवाजे का निर्माण करवाया।
जालौर के चैहन वंष की जानकारी ‘नैणसी री ख्पात’ व ‘कान्हड़देव प्रबन्ध’ (पद्मनाभ) में मिलती हैं।
सिरोही के चैहान:-
सिरोही में चैहान वंष की नींव लुम्बा ने रखी थी। इन्होने अपनी राजधानी चन्द्रावती को बनाया।
1823 ई. में यहां के शासक षिवसिंह ने ईस्ट इण्डिया कंपनी से संधि करली।
मेवाड़ का इतिहास
मेवाड़ का प्राचीन नाम मेदपाट/ षिवी/ प्रागवाट हैं।
मेवाड़ में दो राजवंषों ने शासन किया:-
गुहिल वंष:- गुहिल राजवंष की नींव गुहा द्वितीय ने रखी थी।
सिसोदिया वंष:- राणा हम्मीर देव (संस्थापक)
गुहिल वंष
बप्पा रावल:-
ह्यरित ऋषिके आर्षिवादसे अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई।
जिससे इन्होने मेवाड़ की सीमा का विस्तार किया।
अपनी राजधानी नागदा (उदयपुर) बनाई।
बप्पा रावल ने चित्रागंद मौर्य से चित्तौड़ जीता।
इन्होने अपने 734 कुलदेवता एकलिंगजी का मन्दिर बनवाया
इन्होने सोने के सिक्के चलाए।
नागदा के पास ही इनका समाधि स्थल हैं।
अल्लट:-
इनके समय मेवाड़ अपनी उन्नति की चरमसीमापर था।
इन्होने अपनी राजधानी आहड़ को बनाया।
इन्होने हरियक वंष की राजकुमारी के साथ विवाह किया।
जैत्रसिंह:-
इल्तुतमिष की सेना को पराजित किया।
इसके दो पुत्र थे कर्णसिंह (कुम्भकर्ण) और रतनसिंह।
कर्ण सिंह (कुम्भकर्ण) नेपाल चला गया और रतनसिंह ने मेवाड़ में शासन किया।
रतनसिंह (1302):-
इनकी पत्नी का रानी रानी पद्मनी था।
रतनसिंह मेवाड़ के गुहिल वंष का अंतिम शासक था।
1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
रतनसिंह परास्त हुआ, पुरूषो ने केसरिया किया एवं महिलाओं ने जौहर किया।
यह मेवाड़ का पहला शाका था। इस युद्ध में गोरा-बादल शहीद हुए, जो रानी पद्मनी के रिष्तेदार थे।
अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद रखा और अपने पुत्र खिज्रखां को प्रषासक बनाया।
नोट:- अमीर खुसरों इस युद्ध मंे उपस्थित था।
सिसोदिया वंष
इसका संस्थापक राणा हम्मीर था।
इसके पिताजी का नाम अरीसिंह था।
राणा हम्मीर को मेवाड़ का उद्धारक कहते हैं।
महाराणा कुम्भा की रसिक प्रिया टीका में राणा हम्मीर को विषम घाटी पंचानन कहा गया हैं।
राणा लाखा:-
हम्मीर का पौत्र था। इसका वास्तविक नाम लक्षसिंह था।
राणा लाखा ने मारवाड़ा के राणा रणमल की बहन हंसादेवी से विवाह किया था।
मोकल हंसा बाई और राणा लाखा का पुत्र था, जो लाखा के बाद मेवाड़ का शासक बना था।
राणा लाखा के बन्जारे मंत्री ने पिछोला झील का निर्माण करवाया।
राणा लाखा के समय ही जावर में चांदी की खान खोजी गई थी।
महाराणा कुंभा:-
इन्हे अभिनव भरताचार्य एवं हिन्दु सुरताणा की संज्ञा दी जाती हैं।
महाराणा कुंभा मोकल का पुत्र था, माता का नाम सौभाग्य देवी।
सारंगपुर का युद्ध (1437):-
मालवा के शासक महमूद खिलजी और राणा कुंभा के बीच हुआ।
कुंभा विजय हुआ, इस विजय के उपलक्ष में चित्तौड़ में कुंभा ने विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।
इसे भारतीय मूर्तिकला का विष्वकोष कहते हैं।
इसके निर्माता जैता और कुंजा थे।
यह 9 मंजिला हैं।
चंपानेर की संधि (1456):-
मालवा के शासक मेहमूद खिलजी और गुजरात के शासक कुतुबुदीन के बीच हुई।
इस संधि का उद्देष्य मेवाड़ को जीतकर आपस में बांटना था, लेकिन कुंभा के हाथो दोनो पराजित हुए।
कुंभा का स्थापत्य कला:-
अचलगढ़ दुर्ग का निर्माण, कुम्भलगढ़ दुर्ग का निर्माण, रणकपुर जैन मंदिर:-
इसका निर्माण एक जैन श्रेष्ठी धरणकषाह ने करवाया था। इसमें आदिनाथ की मूर्ति लगी हुई हैं।
कुंभा के द्वारा लिखी गई पुस्तकें:- रसिकप्रिया, सूड़प्रबन्ध, संगीत मीमांसा,
संगीतराज, संगीत रत्नाकर
मंडन मिश्र:-
कुंभा का दरबारी षिल्पकार/वास्तुकार।
कुंभा के सभी महल इसी की देख-रेख में निर्मित हुए।
इसकी प्रसिद्ध पुस्तक प्रासादमण्डल हैं।
रमाबाई, अत्री, महेषभट्ट, कान्हा व्यास कुंभा के दरबारी विद्वान हैं।
कुंभा की हत्या उसके पुत्र ऊदा ने 1468 में की थी
रायमल (1473-1509):-
कुंभा का पुत्र, इसके तीन पुत्र थे पृथ्वीराज, जयमल, राणा सांगा इन तीनों के मध्य उत्तराधिकारी के लिए युद्ध हुआ जिसमें सांगा विजय हुए।
अजमेर के सामन्त कर्मचन्द ने सांगा का साथ दिया।
राणा सांगा (1509-1527):-
बाबर की जीवनी ‘बाबरनामा’ में राणा सांगा का उल्लेख हैं। सांगा के द्वारा लड़े गये युद्ध निम्न हैं:-
– खतौली (बूंदी) का युद्ध (1517):-
राणा सांगा एवं इब्राहिम लोदी के बीच हुआ। सांगा विजय रहे।
- धौलपुर का युद्ध (1518):-
राणा सांगा एवं इब्राहिम लोदी के बीच हुआ। सांगा विजय रहें।
- गागरोन का युद्ध (1519):-
राणा सांगा एवं महमूद खिलजी द्वितीय (मालवा के शासक) के बीच। सांगा विजय हुए और खिलजी का मुकट और कमरबन्द छीनकर खिलजी को 6 माह तक चित्तौड़ मंे कैद रखा बाद में मुक्त कर दिया गया।
- बयाना का युद्ध (1527):-
बाबर व राणा सांगा के बीच। सांगा विजय रहें।
– खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527):-
बाबर व राणा सांगा, बाबर विजय रहा। बाबर ने इस युद्ध में जेहाद की घोषणा की थी।
तोपखाने का प्रयोग किया। मुसलमानों पर तमगा नामक कर समाप्त किया।
इस युद्ध में बाबर ने तुलगमा युद्ध प्रणाली को अपनाया।
विजय के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि ली।
घायल अवस्था में सांगा को दौसा के बसवा नामक स्थान पर लाया गया।
इसी स्थान पर राणा सांगा की समाधि भी है।
1528 मंे सांगा की मृत्यु हो गयी।
सांगा की छतरी भीलवाड़ा के माण्डलगढ़ में हैं।
कर्मावती:-
राणा सांगा की पत्नी।
सांगा की मृत्यु के बाद विक्रमादित्य शासक बना और उसकी माता कर्मावती उसकी संरक्षिका बनी।
1533 मंे गुजरात के शासक बहादुरषाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
कर्मावती ने बहादुर शाह के विरूद्ध सैनिक सहायता के लिए हुमायू को राखी भेजी, लेकिन हुमायू सहायता नहीं भेज सका।
कर्मावती ने जौहर किया और पुरूषों ने केसरिया किया।
यह मेवाड़ का दूसरा शाका था।
उदयसिंह:-
राणा सांगा का पुत्र, 1559 मंे उदयपुर की स्थापना की।
1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
उदयसिंह की सेना का नेतृत्व जयमल, फत्ता और कल्लाजी राठौड़ ने किया, तीनो वीरगती को प्राप्त हुए।
पुरूषों ने केसरिया किया एवं महिलाओं ने जौहर किया।
यह मेवाड़ का तीसरा शाका था।
युद्ध के बाद उदयसिंह ने गोगुन्दा को राजधानी बनाया।
महाराणा प्रताप (1572-1597):-
पिताजी का नाम उदयसिंह, माता जयन्ती बाई
उदयसिंह ने अपने पुत्र जगमालसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाया था।
लेकिन सरदारों ने स्वीकार नहीं किया।
सरदारों ने महाराणा प्रताप को अपना राजा बनाया।
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा मंे हुआ और महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ को राजधानी बनाया।
मुगल -मेवाड़ संघर्ष:- अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए
निम्नलिखित दूत भेजे:-
1 जलालखां 2. मानसिंह 3. भगवानदास 4. टोड़रमल
हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून, 1576):-
अकबर का सेनापति मानसिंह एवं महाराणा प्रताप के बीच लड़ा गया।
महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम खां सूर थे।
बदायुनी ने इस युद्ध को गोगुन्दा का युद्ध कहा।
अबुल फजल ने इस युद्ध को खमनोर के युद्ध की संज्ञा दी।
कर्नल जेम्स टाॅड ने इसे थर्मोपल्ली की संज्ञा दी।
इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया एवं 1597 मंे महाराणा प्रताप की चावण्ड में मृत्यु हो गयी।
उदयपुर के बाड़ोली में महाराणा प्रताप की छतरी हैं, जबकि समाधि चावण्ड में हैं।
जब महाराणा प्रताप घायल होकर युद्ध से बाहर हो गये, तब महाराणा प्रताप की जगह झाला बीदा ने संभाली थी।
दिवेर का युद्ध (1583-1615):-
मुगल व मेवाड़ की सेना के बीच लड़ा गया।
यह एक छापामार युद्ध था।
कर्नल टाॅड ने इसे मेवाड़ के मैराथन की संज्ञा दी हैं।
मुगल मेवाड़ संधि (1615):-
अमरसिंह एवं जहांगीर के बीच
इस संधि में निम्न शर्तें थी:-
अमरसिंह मुगल दरबार में उपस्थित नहीं होगा।
मेवाड़ मुगलों से कोई वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं करेगा। यह दोनो शर्ते अमरसिंह की थी।
मेवाड़ चित्तौड़ के किले का पुनः उद्धार नहीं करेगा। यह शर्त जहांगीर की थी।
कर्णसिंह:-
इन्होने जगमन्दिर का निर्माण करवाया।
राजसिंह:-
राजसमन्द झील (गोमती नदी के पानी को रोककर) का निर्माण करवाया एवं राजसमन्द की स्थापना की।
नाथद्वारा में श्रीनाथजी के मन्दिर की स्थापना की।
जयसिंह:- जयसमन्द झील का निर्माण करवाया। इसे डेबर झील भी कहते हैं।
संग्रामसिंह:-
राजपूतो में एकता स्थापति एवं कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए हुरड़ा (भीलवाड़ा) में सम्मेलन बुलाने की योजना बनाई लेकिन उससे पहले ही इनकी मृत्यु हो गई।
जगसिंह द्वितीय:-
मराठो से संघर्षं के लिए राजपूतों मंे एकता स्थापित की।
स्वरूपसिंह:-
1857 की क्रांति के समय उदयपुर के शासक
भोपालसिंह:-
उदयपुर के राजस्थान में विलय के समय, मेवाड़ के शासक, इन्हे राजस्थान का महाराज प्रमुख बनाया गया था।
जयपुर राजवंष
दुल्हेराय (1137):-
ढुढ़ाड राज्य की स्थापना की, मीणाओं व बड़गुजरों को परास्त किया।
कोकिल देव (1207-1727) :- आमरे की नींव रखी।
भारमल (1547-73):-
1547 में आमेर के शासक बने
प्रथम राजपूत शासक जिसने मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थािपत किये।
इन्होने अपनी पुत्री जोधाबाई (हरखुबाई)/मरियम उज्जमानी का विवाह अकबर से किया।
जहांगीर इन्ही के पुत्र थें।
भगवान दास:- इन्होने अपनी पुत्री का विवाह जहांगीर से किया।
मानसिंह:-
भगवानदास के दत्तक पुत्र थे।
हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व मानसिंह ने किया था।
1568 में अकबर के रणथम्भौर अभियान में मानसिंह अकबर के साथ गए थे।
1572 में गुजरात अभियान में भी अकबर का साथ निभरया।
1574 में बंगाल, बिहार, उड़ीसा के शासक दाऊद खां का दमन किया।
1580 में काबुल अभियान में भी मानसिंह विजयी रहें।
1580 में अकबर ने मानसिंह को सिंधु नदी का प्रषासक नियुक्त किया।
1586 में मानसिंह व टोडरमल ने युसुफजाइयों का दमन किया।
1590 में मानसिंह आमेर के शासक बने, उस समय अकबर ने उन्हे ‘राजा’ का खिताब दिया व मिर्जाराजा की उपाधि व 5000 का मनसब दिया।
1594 में मानसिंह बंगाल के सूबेदार बने।
1604 में इन्होने बंगाल में मुगलसत्ता की स्थापना की। बंगाल में शान्ति स्थापित की।
इसी उपलक्ष में अकबर ने 7000 का मनसब (7000 जात, 6000 सवार प्रदान किया।
अकबर ने फर्जंद और मिर्जाराजा की उपाधियां दी।
मानसिंह 12 वर्षं की आयु में अकबर की सेवा में चले गए।
मानसिंह ने दीन-ए-इलाही धर्मं नहीं अपनाया
आमेर में जयगढ़ किले का निर्माण करवाया।
वृंदावन में राधा-गोविन्द मंदिर (गौड़ीय संप्रदाय) का निर्माण करवाया।
मुरारीदास ने मानचरित्र नामक पुस्तक लिखी हैं।
इनकी मृत्यु एलिचपुर (महाराष्ट्र) में 1614 में हुई थी।
मिर्जाराजा जययिसंह (1621-1667):-
शाहजहां ने मिर्जा की उपाधि प्रदान की।
इन्होने जहांगीर, शाहजहां एवं औरंगजेब की सेवा की।
1665 में षिवाजी के साथ पुरन्दर की संधि की।
बिहारी इनके दरबारी कवि थे।
बिहारी ने सतसई की रचना की।
मिर्जा राजा जयसिंह ने जयपुर में जयगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया जो इनकी वास्तुकला के प्रति रूचि को दर्षांता हैं।
इनकी मृत्यु बरहानपुर (मध्यप्रदेष) में 1667 में हुई थी।
रामकवि ने जयसिंहचरित्र नामक पुस्तक लिखि हैं।
सवांई राजा जयसिंह (1700-1743):-
इन्हे सवांई जयसिंह नाम औरंगजेब ने दिया। इनके बचपन का नाम विजयसिंह था।
18 नवम्बर, 1727 को जयपुर की स्थापना की।
जयपुर का निर्माण वास्तुविद् विद्याधर भट्टाचार्य के सहयोग से की।
जयसिंह अंतिम हिंदु राजा थे, जिन्होने अष्वमेघ यज्ञ करवाया।
पुण्डरिक रत्नाकार ने जयसिंह कल्पद्रुम की रचना की।
जयसिंह को ज्योतिष व नक्षत्रों का अच्छा ज्ञान था।
इन्होने जीज मोहम्मदषाही, जयसिंह कारिका ग्रंथों (नक्षत्रों से सम्बन्धित) की रचना की।
जयपुर के जंतरमंतर का निर्माण जयसिंह ने करवाया था जिसे वर्तमान में विष्व की सांस्कृतिक धरोहर में शामिल किया गया हैं।
चार अन्य वैधशाला का निर्माण दिल्ली, बनारस, उज्जैन, मथुरा मंे करवाया।
इन्होने सीटी पैलेस (चन्द्र महल) का निर्माण करवाया।
सवांई ईष्वरसिंह:-
रजमहल का युद्ध 1747 में बनास नदी के किनारे हुआ।
माधोसिंह व मराठो का संयुक्त रूप से पराजित किया।
इसके उपलक्ष में ईष्वरी सिंह ने ईष्वरलाट का निर्माण करवाया था।
मराठों के अत्यधिक आक्रमण से तंग आकर अन्त में आत्महत्या करली।
सवांई माधोसिंह (प्रथम):-
यह ईष्वरीसिंह के भाई थे।
इनके शासककाल मंे जयपुर में नागरिकों ने मराठों का कत्लेआम किया।
जयुपर में मोतीडूंगरी के महलों का निर्माण करवाया।
सवांईमाधोपुर नगर बसाया।
सवांई प्रतापसिंह:-
ये ‘ब्रजनिधि’ के नाम से काव्य रचनाएँ लिखते थे।
इन्ही के समय में जयपुर में एक संगीत सम्मेलन बुलाया गया। जिसमें ‘राधा-गोविन्द संगीत सार’ ग्रंथ की रचना की गई।
इन्होने 1799 ई. में हवामहल का निर्माण करवाया।
तुंगा का युद्ध (1787):-
सवांई प्रतापसिंह ने इस युद्ध में महादजी सिन्धियां को हराया।
तुंगा दौसा में स्थित हैं।
सवांई प्रतापसिंह के समय में जयपुर में कला व साहित्य की अभूतपूर्व वृद्धि हुई
महाराजा मानसिंह (1835-80):-
इन्होने 1843 में लार्ड लुडलों की सहायता से जयपुर में सतीप्रथा, दासप्रथा, कन्यावध को समाप्त किया।
1857 की क्रान्ति में रामसिंह ने अंग्रेजो का भरपुर साथ दिया।
अंग्रेजो ने इन्हे सितारे-हिन्द कहा।
1876 में प्रिंस अल्बर्ट (प्रिंस वेल्स) जयपुर आए।
इन्ही के सम्मान में पूरे जयपुर को गुलाबी रंग से रंगवाया गया।
अल्बर्ट हाॅल (म्यूजियम) का षिलान्यास इन्होने किया।
माधोसिंह द्वितीय:-
इन्होने मदनमोहन मालवीय के बनारस हिन्दु विष्वविद्यालय के लिए 5 लाख रुपये दान दिए।
मानसिंह द्वितीय:-
माधोसिंह द्वितीय के दत्तक पुत्र थे।
स्वतन्त्रता प्राप्ति तक यह जयपुर के शासक बने रहें।
जाट वंष
राजस्थान के पूर्वी भाग में भरतपुर, धौलपुर, डीग में जाटवंष का शासन था।
चूड़ामन:-
जाट शक्ति का उदय औरंगजेब के समय हुआ।
जाट सरदार चुड़ामन ने भरतपुर में धून का कीला बनाकर जाट राज्य की स्थापना की।
बदनसिंह:-
इन्हें सवांईजयसिंह ने ब्रजनिधि की उपाधि प्रदान की एवं डीग की जागीर दी।
इन्होने डीग में जलमहलों का निर्माण करवाया।
जलमहल जयपुर में भी हैं।
सूरजमल:-
इन्हे जाटों का ‘प्लेटो’/अफलातून भी कहा जाता हैं।
लोहगढ़ का निर्माण करवाया
भरतपुर का किला (मिट्टी का किला)
भाटी वंष
भाटी वंष की स्थापना भट्टी ने की, भाटी स्वयं को चंद्रवंष यादव और श्रीकृष्ण के वंषज बताते हैं। इनकी नींव हनुमानगढ़ में रखी गई थी।
भट्टी ने 285 ई. (तीसरी सदी) में हनुमानगढ़ (राजस्थान के उत्तर-पष्चिम भाग) में भटनेर का किला बनवाया।
भट्टी के वंष:-
मंगलराव:- इसने अपनी राजधानी तनौट को बनाया था।
देवराव:- इन्होने अपनी राजधानी लोद्रवा बनायी।
राव जैसल:- इन्होने 1155 ई. जैसलमेर में भाटीवंष की स्थापना की।
स्थापत्य:- सोनारगढ़ का दुर्ग बनवाया जो लाल पत्थरों से निर्मित हैं।
जवाहर सिंह:- इनके समय में सागरमल गोपा की 1946 की घटना घटी।
30 मार्च, 1949 को वृहद् राजस्थान में जैसलमेर का विलय हो गया।
करौली (कल्याणपुर)
करौली में यदुवंषियों का शासन था। इसकी स्थापना विजयपाल ने की थी।
तिमनगढ़का दुर्ग करौली के स्थापत्य को बताता हैं।
कोटा
प्रारम्भ में कोटा बूंदी रियासत का एक भाग था।
शहाजहां के समय राव रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह ने कोटा में पृथक राज्य की स्थापना की थी।
परमारवंश
परमारों शासन आठवी से तेहरवी शताब्दी में आबू, चन्द्रावती आदि स्थानों पर था।
परमारों ने अपनी राजधानी अथूना (बाड़मेर) को बनाया।
राजस्थान के इतिहास जानने के स्त्रोत
राजस्थान के इतिहास जानने के स्त्रोत
1. षिलालेख 2. गुहालेख 3. प्रषस्तियां
4. भग्नावेष 5. सिक्के 6. पत्र
7. ताम्रपत्र 8. खनन से प्राप्त 9. पुरातात्विकसामग्री
प्रमुख षिलालेख
बरली का षिलालेख (चित्तौड़):-
यह प्रथम षिलालेख हैं, जो बाहनीलिपी में लिखा गया हैं।
इस षिलालेख में अजमेर और चित्तौड़ में जैन धर्म का प्रसार बताया गया हैं।
सांमौली का षिलालेख (उदयपुर):-
संस्कृत भाषा में लिखित इस षिलालेख से मेवाड़ के गुहिल वंष की जानकारी प्राप्त होती हैं।
घटियाला का षिलालेख (जोधपुर):-
यह षिलालेख जोधपुर में स्थित हैं। जो प्रतिहार शासक की तत्कालीन जानारी देते हैं।
चित्तौड़ का षिलालेखः-
यह चित्तौड़ के राजा भोज और उनके उत्तराधिकारियों की जानकारी देता हैं।
बिजौलिया षिलालेख (भीलवाड़ा):-
यह सांभर और अजमेर के चैहान वंष की जानकारी देता हैं।
चिरवा का षिलालेख (उदयपुर):-
यह बप्पारावल के समय मेवाड़ की धार्मिंक स्थिति का वर्णन करते हैं।
महत्वपूर्ण प्रषस्तियां
रणकपुर (पाली):-
यहां जैन चैमुख मंदिर हैं। यह जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध हैं।
यहां 1444 खंभे हैं।
यह प्रषस्ति बप्पा रावल से लेकर महाराणा कुम्भा तक इतिहास बताती हैं।
किर्तिस्तम्भ प्रषस्ति (चित्तौड़):-
यह प्रषस्ति मेवाड़ के महाराणाओं की वंषावली बताती हैं।
साथ ही साथ 13 वीं शताब्दी में राजस्थान की धार्मिंक-सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को भी बताती हैं।
राजप्रषस्ति (राजसमन्द):-
यहां से राजस्थान का सबसे बड़ा षिलालेख प्राप्त हुआ हैं।
यह षिलालेख राजसमंद झील के किनारे 25 काले पत्थरों की षिलाओं पर अंकित हैं।
यह संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं।
इसे रणछोड़ भट्ट ने लिखा था।
जामा मस्जिद का लेख (भरतपुर):-
इस लेख से भरतपुर के शासक बलवंतसिंह की जानकारी मिलती हैं।
महत्वपूर्ण ताम्रपत्र
आहड़ताम्र पत्र:-
यह गुजरात के शासक भीमदेव द्वितीय से लेकर सोलंकी शासकों की जानकारी देता हैं।
खेरोदो ताम्रपत्र:-
यह ताम्रपत्र महाराणा कुंभा की गतिविधियों की जानकारी देता हैं।
महत्वपूर्ण सिक्कें
1.
अष्वेषाही
जैसलमेर
2.
शाहआलमी
मेवाड़
3.
गजशाही
बीकानेर
4.
तमचाषाही
धौलपुर
5.
सालिमषाही
बांसवाड़ा
6.
रामषाही
बूंदी
7.
विजयषाही
जोधपुर
8.
झाड़षाही
जयपुर
9.
रावशाही
अलवर
कलदार सिक्कें:- ये सिक्कें ब्रिटिषकाल में अंग्रेजों के द्वारा चलाए गए।
महत्वपूर्ण पुरालेख
खरीता:- एक राजा को दूसरे राजा द्वारा भेजे गए पत्र।
परवाना (प्रवाहन):- शासक द्वारा अपने अधीनस्थ को भेजे जाने वाले पत्र।
फरमान (रूक्के/निषान):- यह पत्र शासक द्वारा शाहीवर्ग के लोगों व विदेषी शासकों को लिखे जातें थे।
बहियां:- राजा के दैनिक कार्यों के संचालन का बोध होता हैं।
हकीकत री बही:- राजा की दैनिक दिनचर्या।
हुकूमत री बही:- राजा के शासकीय आदेषों की नकल की जाती थी।
खरीताबही:- राजा को प्राप्त होनेवाले महत्वपूर्ण पत्रों की नकल की जाती थी।
कमठाना बही:- राजकीय महलों व भवनों के निर्माण पर होने वाले खर्च का
लेखा-जोखा रखा जाता था।
ओहिया बही:- भ्रष्टाचाी कर्मचारियों की सूची।
मुल्क:- राज्य की आर्थिंक स्थिती।
जमाबंदी:- राजस्व सम्बन्धित जानकारी रखी जाती थी।
राजस्थान-जनपदकाल
राजस्थान के प्राचीन इतिहास को तीन भागों में बांटा जाता हैं। जिस समय भारत में सोलह जनपद थे, उस समय राजस्थान में तीन जनपदों का उदय हुआ:-
मत्स्य जनपद:- अलवर-जयपुर का क्षेत्र, इसकी राजधानी विराटनगर थी।
कुरू जनपद:- अलवर से लेकर दिल्ली तक का क्षेत्र आता था, इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी।
शूरसेन:- धौलपुर, भरतपुर, करौली का क्षेत्र। इसकी राजधानी मयुरा थी।
इस युग के प्रमाण बैराठ में अषोक के आब्रु षिलालेख प्राप्त होते हैं।
कुषाण:-
राजस्थान के पूर्वी भाग पर कुषाणों का अधिकार था। राजस्थान के पूर्वी भाग में कुषाणों का अधिकार था। सुदर्षन झील (भरतपुर) के अभिलेख से कुषाणों की पुष्टि होती हैं।
गुप्तकाल:-
समुन्द्रगुप्त ने राजस्थान के दक्षिण भाग में अधिकार किया था। गुप्तकालीन शासकों के सिक्के बयाना (भरतपुर) से मिलते हैं।
हुणयुग:-
हुणषासक तोरमाण ने राजस्थान पर आक्रमण किया और इसे अपने राज्य में मिला लिया।
मिहिरकुल तोरमाण के पुत्र थे, जिन्होने कोटा में (बाड़ोली) षिवमंदिर का निर्माण करवाया।
यह मंदिर पंचायतन शैली से बना हैं।
वर्धन युग:-
सातवी शताब्दी में प्रभाकर वर्धन ने गुर्जरों से राजस्थान को छीना लेकिन इसी शताब्दी में इसकी मृत्यु हो गयी और गुर्जरों ने पुनः राजस्थान पर अधिकार कर लिया।
1. षिलालेख 2. गुहालेख 3. प्रषस्तियां
4. भग्नावेष 5. सिक्के 6. पत्र
7. ताम्रपत्र 8. खनन से प्राप्त 9. पुरातात्विकसामग्री
प्रमुख षिलालेख
बरली का षिलालेख (चित्तौड़):-
यह प्रथम षिलालेख हैं, जो बाहनीलिपी में लिखा गया हैं।
इस षिलालेख में अजमेर और चित्तौड़ में जैन धर्म का प्रसार बताया गया हैं।
सांमौली का षिलालेख (उदयपुर):-
संस्कृत भाषा में लिखित इस षिलालेख से मेवाड़ के गुहिल वंष की जानकारी प्राप्त होती हैं।
घटियाला का षिलालेख (जोधपुर):-
यह षिलालेख जोधपुर में स्थित हैं। जो प्रतिहार शासक की तत्कालीन जानारी देते हैं।
चित्तौड़ का षिलालेखः-
यह चित्तौड़ के राजा भोज और उनके उत्तराधिकारियों की जानकारी देता हैं।
बिजौलिया षिलालेख (भीलवाड़ा):-
यह सांभर और अजमेर के चैहान वंष की जानकारी देता हैं।
चिरवा का षिलालेख (उदयपुर):-
यह बप्पारावल के समय मेवाड़ की धार्मिंक स्थिति का वर्णन करते हैं।
महत्वपूर्ण प्रषस्तियां
रणकपुर (पाली):-
यहां जैन चैमुख मंदिर हैं। यह जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध हैं।
यहां 1444 खंभे हैं।
यह प्रषस्ति बप्पा रावल से लेकर महाराणा कुम्भा तक इतिहास बताती हैं।
किर्तिस्तम्भ प्रषस्ति (चित्तौड़):-
यह प्रषस्ति मेवाड़ के महाराणाओं की वंषावली बताती हैं।
साथ ही साथ 13 वीं शताब्दी में राजस्थान की धार्मिंक-सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को भी बताती हैं।
राजप्रषस्ति (राजसमन्द):-
यहां से राजस्थान का सबसे बड़ा षिलालेख प्राप्त हुआ हैं।
यह षिलालेख राजसमंद झील के किनारे 25 काले पत्थरों की षिलाओं पर अंकित हैं।
यह संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं।
इसे रणछोड़ भट्ट ने लिखा था।
जामा मस्जिद का लेख (भरतपुर):-
इस लेख से भरतपुर के शासक बलवंतसिंह की जानकारी मिलती हैं।
महत्वपूर्ण ताम्रपत्र
आहड़ताम्र पत्र:-
यह गुजरात के शासक भीमदेव द्वितीय से लेकर सोलंकी शासकों की जानकारी देता हैं।
खेरोदो ताम्रपत्र:-
यह ताम्रपत्र महाराणा कुंभा की गतिविधियों की जानकारी देता हैं।
महत्वपूर्ण सिक्कें
1.
अष्वेषाही
जैसलमेर
2.
शाहआलमी
मेवाड़
3.
गजशाही
बीकानेर
4.
तमचाषाही
धौलपुर
5.
सालिमषाही
बांसवाड़ा
6.
रामषाही
बूंदी
7.
विजयषाही
जोधपुर
8.
झाड़षाही
जयपुर
9.
रावशाही
अलवर
कलदार सिक्कें:- ये सिक्कें ब्रिटिषकाल में अंग्रेजों के द्वारा चलाए गए।
महत्वपूर्ण पुरालेख
खरीता:- एक राजा को दूसरे राजा द्वारा भेजे गए पत्र।
परवाना (प्रवाहन):- शासक द्वारा अपने अधीनस्थ को भेजे जाने वाले पत्र।
फरमान (रूक्के/निषान):- यह पत्र शासक द्वारा शाहीवर्ग के लोगों व विदेषी शासकों को लिखे जातें थे।
बहियां:- राजा के दैनिक कार्यों के संचालन का बोध होता हैं।
हकीकत री बही:- राजा की दैनिक दिनचर्या।
हुकूमत री बही:- राजा के शासकीय आदेषों की नकल की जाती थी।
खरीताबही:- राजा को प्राप्त होनेवाले महत्वपूर्ण पत्रों की नकल की जाती थी।
कमठाना बही:- राजकीय महलों व भवनों के निर्माण पर होने वाले खर्च का
लेखा-जोखा रखा जाता था।
ओहिया बही:- भ्रष्टाचाी कर्मचारियों की सूची।
मुल्क:- राज्य की आर्थिंक स्थिती।
जमाबंदी:- राजस्व सम्बन्धित जानकारी रखी जाती थी।
राजस्थान-जनपदकाल
राजस्थान के प्राचीन इतिहास को तीन भागों में बांटा जाता हैं। जिस समय भारत में सोलह जनपद थे, उस समय राजस्थान में तीन जनपदों का उदय हुआ:-
मत्स्य जनपद:- अलवर-जयपुर का क्षेत्र, इसकी राजधानी विराटनगर थी।
कुरू जनपद:- अलवर से लेकर दिल्ली तक का क्षेत्र आता था, इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी।
शूरसेन:- धौलपुर, भरतपुर, करौली का क्षेत्र। इसकी राजधानी मयुरा थी।
इस युग के प्रमाण बैराठ में अषोक के आब्रु षिलालेख प्राप्त होते हैं।
कुषाण:-
राजस्थान के पूर्वी भाग पर कुषाणों का अधिकार था। राजस्थान के पूर्वी भाग में कुषाणों का अधिकार था। सुदर्षन झील (भरतपुर) के अभिलेख से कुषाणों की पुष्टि होती हैं।
गुप्तकाल:-
समुन्द्रगुप्त ने राजस्थान के दक्षिण भाग में अधिकार किया था। गुप्तकालीन शासकों के सिक्के बयाना (भरतपुर) से मिलते हैं।
हुणयुग:-
हुणषासक तोरमाण ने राजस्थान पर आक्रमण किया और इसे अपने राज्य में मिला लिया।
मिहिरकुल तोरमाण के पुत्र थे, जिन्होने कोटा में (बाड़ोली) षिवमंदिर का निर्माण करवाया।
यह मंदिर पंचायतन शैली से बना हैं।
वर्धन युग:-
सातवी शताब्दी में प्रभाकर वर्धन ने गुर्जरों से राजस्थान को छीना लेकिन इसी शताब्दी में इसकी मृत्यु हो गयी और गुर्जरों ने पुनः राजस्थान पर अधिकार कर लिया।
राजस्थान के किसान आंदोलन | Farmers movement of Rajasthan |
Farmers movement of Rajasthan (राजस्थान के किसान आंदोलन)
बजौलिया किसान आंदोलन (1897 -1941):-
- बिजौलिया ठिकाने का संस्थापक अषोक परमार था।
- खानवा के युद्ध में सांगा की सहायता करने के कारण, सांगा ने यह ठिकाना अषोक परमार को दिया था।
- बिजौलिया का क्षेत्र उपरमाल के नाम से जाना जाता हैं। इस ठिकाने में धाकड़ किसान कृषि कार्य करते थे।
- लागबांग (83 प्रकार की थी), बेगार, लाटा, कुंता व चंवरी कर, तलवार बंधाई कर (भू-राजस्व निर्धारण की पद्धतियां)
- बिजौलिया किसान आंदोलन की शुरूआत साधुसीतारामदास, नानकजी पटेल व ठाकरी पटेल के नेतृत्व में हुई थी।
- किसानों का यह आंदोलन साधुसीताराम के नेतृत्व में शुरू हुआ। जिसकी बागड़ोर 1916 मंे विजयसिंह पथिक (बुलन्दषहर) ने सम्भली।
- 1917 ई. में विजयसिंह पथिक ने ऊपरमाल पंचबोर्ड़ की स्थापना की।
- 1919 ई. में किसानों की मांगो के लिए एक आयोग का गठन किया गया:- बिन्दुलाल भट्टाचार्य आयोग।
- 1923-41 तक इस आंदोलन का राष्ट्रीय पहचान मिली।
- 1927 में विजयसिंह पथिक इस आंदोलन से अलग हो गए।
- पथिक के बाद माणिक्यलाल वर्मा, हरिभाऊ उपाध्याय तथा जमनालाल बजाज ने इस आंदोलन की बागड़ोर संभाली
- माणिक्यलाल वर्मां व मेवाड़ रियासत के प्रधानमंत्री टी.राघवाचार्य के बीच समझौता हुआ और किसानों की अधिकांष मांग मान ली गयी।
- विजयसिंह पथिक को किसान आंदोलन का जनक कहा जाता हैं।
बेंगु किसान आंदोलन (चित्तौड़गढ़) (1921):-
- इसकी शुरूआत लाग बाग, बेगार प्रथा के विरोध के पिरणामस्वरूप कारण सन् 1921 ई. हुई थी।
- आंदोलन की शुरूआत रामनारायण चैधरी ने की बाद में इसकी बागड़ोर विजयसिंह पथिक ने सम्भाली थी। इस समय बेंगु के ठाकुर अनुपसिंह थे।
- 1923 में अनुपसिंह और राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारयण चैधरी के मध्य एक समझौता हुआ जिसे वोल्सेविक समझौते की संज्ञा दी गई। यह संज्ञा किसान आंदोलन के प्रस्तावों के लिए गठित ट्रेन्च आयोग ने दी थी।
- 13 जुलाई,1923 को गोविन्दपुरा गांव में किसानों का एक सम्मेलन हुआ, सेना के द्वारा किसानों पर गोलिया चलाई गयी। जिसमें रूपाजी और कृपाजी नामक दो किसान शहीद हुए। अन्त में बेगार प्रथा को समाप्त कर दिया गया। यह आन्दोलन विजयसिंह पथिक के नेतृत्व में समाप्त हुआ था।
अलवर किसान आंदोलन:-
अलवर में दो आंदोलन हुए थे
- सुअरपालन विरोधी आंदोलन (1921)
- नीमूचणा किसान आंदोलन (1923-24)
सुअरपालन विरोधी आंदोलन (1921):-
- अलवर में बाड़ों में सुअर पालन किया जाता था, जब कभी इन सुअर को खुला छोड़ा जाता था, तब ये फसल नष्ट कर देते थे। जिसका किसानों ने विरोध किया, जबकि सरकार ने सुअरों को मारने पर पाबंदी लगा रखी थी। लेकिन अंत में सरकार के द्वारा सुअरों को मारने की अनुमति दे दी एवं आंदोलन शांत हो गया।
नीमूचणा किसान आंदोलन (1923-24):-
- अलवर के महाराजा जयसिंह द्वारा लगान की दर बढ़ाने पर 14 मई, 1925 को नीमूचणा गांव में 800 किसानों ने एक सभा आयोजित की
- जिस पर पुलिस ने गोलियां चलाई जिसमंे सैकड़ों किसान मारे गए।
- गांधीजी ने इस आंदोलन को जलियांवालाबाग कांड से भी वीभत्स की संज्ञा दी और इसे दोहरे डायरिजम की संज्ञा दी।
बूंदी किसान आंदोलन (1926):-
- इस आंदोलन को बरड़ किसान आंदोलन भी कहते हैं।
- आंदोलन का मुख्य कारण अत्यधिक लगान, लाग बाग और बेगार थी।
- आंदोलन की शुरूआत नैनूराम शर्मा ने की। इनके नेतृत्व में डाबी नामक स्थान पर किसानों का एक सम्मेलन बुलाया, पुलिस ने किसानों पर गोलिया चलाई, जिसमें झण्डा गीत गाते हुए नानकजी भील शहीद हो गए।
- कुछ समय बाद माणिकलाल वर्मा ने इसका नेतृत्व किया। यह आंदोलन 17 वर्षं तक चला एवं 1943 में समाप्त हो गया।
दूधवा-खारा किसान आंदोलन (1946-47):-
- बीकानेर रियासत के चुरू में हुआ। आंदोलन का कारण जमींदारों का अत्याचार था। इस समय बीकानेर के शासक शार्दुलसिंजी (गंगासिंहजी के पुत्र) थे। इस आंदोलन का नेतृत्व रघुवरदयाल गोयल, वैद्य मघाराम, हनुमानसिंह आर्य के द्वारा किया गया।
मातृकुण्डिया किसान आंदोलन (चित्तौड़गढ़):-
- 22 जून, 1880 में हुआ। यह एक जाट किसान आंदोलन था। इसका मुख्य कारण नई भू-राजस्व व्यवस्था थी। इस समय मेवाड़ के शासक महाराणा फतेहसिंह थे।
मेव किसान आंदोलन (1931):-
- यह अलवर व भरतपुर (मेवात) में हुआ। अलवर, भरतपुर के मेव बाहुल्य क्षेत्र को मेवात कहते हैं। यह लगान विरोधी आंदोलन था। आंदोलन का नेतृत्व मोहम्मद अली के द्वारा किया गया।
किषोरीदेवी (25 अप्रैल, 1934):-
- सीकर के कटराथल नामक स्थान पर सरदार हरलालसिंह की पत्नि किषोरदेवी के नेतृत्व में जाट महिलाओं का एक सम्मेलन बुलाया गया। जिसमें लगभग 10,000 महिलाओं ने भाग लिया।
- श्रीमती रमादेवी, श्रीमती दुर्गादेवी, श्रीमती उत्तमादेवी ने इस आंदोलन में सक्रिय भाग लिया था। किषोरीदेवी के प्रयासों से शेखवाटी क्षेत्र में राजनैतिक चेतना जागृत हुई।
जयसिंहपुरा किसान हत्याकाण्ड (1934):-
- यह 21 जून, 1934 को डूंडलोद के ठाकुर के भाई ने खेत जोत रहे किसानों पर गोलिया चलाई, जिसमें अनेक किसान शहीद हुए।
- ठाकुर के भाई ईष्वरसिंह पर मुकदमा चलाया गया।
शेखावटी किसान आंदोलन (1925):-
- यह आंदोलन पलथाना, कटराथल, गोधरा, कुन्दनगांव आदि गांवों में फैला हुआ था।
- खुड़ी गांव और कुन्दन गांव में पुलिस द्वारा की गई कार्यवाही में अनेक किसान मारे गये।
- शेखावटी किसान आंदोलन में जयपुर प्रजामण्डल का योगदान था।
- 1946 में हीरालाल शास्त्री के माध्यम से आंदोलन समाप्त हुआ।
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भारत तथा राजस्थान की महत्वपुर्ण G.K हेतु
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राजस्थान में जनजातीय आंदोलन
राजस्थान में जनजातीय आंदोलन
जनजातीय आंदोलन
भगत आंदोलन/गोविन्दगिरी आंदोलन (1883):-
भील, आदिवासी संन्यासियों को भगत कहा जाता था।
यह आंदोलन आदिवासी भील बाहुल्य डुंगरपुर और बांसवाड़ा में हुआ था।
गोविन्दगिरी के द्वारा भीलों में व्याप्त बुराईयों, कुप्रथाओं को दूर करने के लिए एवं भीलों में राजनैतिक चेतना जागृत करने के लिए 1883 में संप (भाईचारा या सम्पत) सभा की स्थापना की एवं धूणी की स्थापना की जहां गोविन्दगिरी ने भीलों को उपदेष दियें।
गोविन्दगिरी दयानन्द सरस्वती की विचारधारा से प्रेरित थे। इन्होने बांसवाड़ा की मानगढ़ की पहाड़ी को अपनी कर्मभूमि बनाया।
7 दिसम्बर, 1908 को हजारों की संख्या में भील इस पहाड़ी पर इकटठे हुए। पुलिस के द्वारा इन पर गोलियां चलाई गई, जिसमंे लगभग 1500 भील मारे गए।
प्रतिवर्ष इस स्थान पर अष्विन शुक्ल पूर्णिमा को मेला भरता हैं।
ब्रिटिष सरकार और रियासत के द्वारा इस आंदोलन को दबा दिया गया।
एकी आंदोलन/भोमट भील आंदोलन (1921-23):-
इस आंदोलन का सुत्रपात मोतीलाल तेजावत ने किया था। इन्हे आदिवासियों का मसीहा कहा जाता हैं।
मोतीलाल तेजावत का जन्म उदयपुर के कोलियार गांव में एक ओसवाल परिवार में हुआ था। इस आंदोलन का प्रमुख कारण भीलों में व्याप्त असंतोष था। असंतोष के कारण निम्न थें:-
भीलों में व्याप्त सामाजिक बुराईयां व उनकी प्रथाओं पर ब्रिटिष सरकार ने रोक लगा दी थी।
तम्बाकू, अफीम और नमक पर करलगाए गए। यदि भील कर नहीं चुकाता तो उसे खेती नहीं करने दी जाती थी।
भीलों से लाभ और बेगार लेने के लिए क्रुरतापूर्वक व्यवहार किया जाता था।
मोतीलाल तेजावत ने सभी भीलों को एकत्रित कर इस आंदोलन का श्रीगणेष 1921 में झाड़ोल और फालसिया से किया था।
1922 में तेजावत ने नीमड़ा गांव में भीलों का एक सम्मेलन बुलाया। जिसकी घेराबंदी ब्रिटिष सरार ने की व अंधाधुंध गेालियां चलाई। निमड़ाकाण्ड को दूसरा जिलयांवाला काण्ड कहते हैं।
तेजावत भूमिगत हो गए। 1929 में मोतीलाल तेजावत ने महात्मा गंाधी की प्रेरणा से पुनः भीलों के लिए कार्य किये और ‘‘वनवासी संघ’’ नामक संस्था की सन् 1936 में स्थापना की।
इस संघ के मुख्य सदस्य मोतीलाल पाण्ड्य (बांगड़ का गांधी), माणिक्यलाल वर्मा और मोतीलाल तेजावत थे।
मीणा आंदोलन (1930)
यह जयपुर रियासत में हुआ।
इसका कारण 1924 में ब्रिटिष सरकार ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट बनाया तथा 1930 में जयपुर राज्य में जरायम पेषा कानून बनाया जिसमें मीणाओं को अपराधी जाति घोषित कर दिया और इन्हें दैनिक रूप से निकटतम थाने में उपस्थिति दर्ज करवाना अनिवार्य कर दिया।
मीणाओं ने इसका विरोध किया और संघर्षं के लिए 1933 मीणा क्षत्रिय महासभा का गठन , मीणा जाति सुधार कमिटी का गठन किया और 1944 में मुनि मगर सागर की अध्यक्षता में नीमका थाना में एक सम्मेलन बुलाया और 1946 में स्त्रियों और बच्चों को इस कानून से मुक्त कर दिया।
28 अक्टूबर, 1946 को बागावास में मीणाओं ने सम्मेलन बुलाया और चैकीदारी के काम से इस्तीफा दे दिया।
आजादी के बाद 1952 में जरायम पेषा कानून पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया गया।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गठित संस्थाए/संघ/संगठन
सभ्य सभा की स्थापना:-
इसकी स्थापना गुरू गोविन्द गिरी ने आदिवासी हितों की सुरक्षा के लिए की थी।
राजस्थान सेवा संघ (1919):-
इस संस्था को 1920 में अजमेर स्थानांतरितकरदिया गया।
राजस्थान सेवा संघ में प्रमुख भूमिका अर्जुनलाल सेठी, विजयसिंह पथिक, केसरीसिंह बारहठ एवं रामनारायण चैधरीने निभाई थी।
राजपुताना मध्य भारत सभा (1919):-
इसकी स्थापना आमेर में जमनालाल बजाज ने की थी। इसमें मुख्य भूमिका अर्जुनलाल सेठी एवं विजयसिंह पथिक ने निभाई थी।
वीर भारत समाज (1910):-
इसकी स्थापना विजयसिंह पथिक ने की थी।
वीर भारत सभा (1910):-
इसकी स्थापना केसरीसिंह बारहठ़ एवं गोपालदास खरवा ने की थी।
जैन वर्द्धमान विद्यालय (1907):-
इसकी स्थापना अर्जुनलाल सेठी ने जयपुर में की थी।
वागड़ सेवा मंदिर एवं हरिजन सेवा समिति (1935):-
इसकी स्थापना भोगीलाल पाण्ड्या ने की थी।
मारवाड़ सेवा संघ (1920):-
इसकी स्थापना चांदमल सुराणा ने की थी।
मारवाड़ सेवा संघ को सन् 1924 में जयनारायण व्यास ने पुनः जीवित किया और एक नई संस्था की स्थापना की जिसे ‘‘मारवाड़ हितकारणी सभा’’ के नाम से जाना गया।
मारवाड़ हितकारणी सभा की स्थापना 1929 में हुई।
अखिल भारतीय देषी राज्य लोक परिषद (1927):-
इसकी स्थापना में मुख्य भूमिका जवाहरलाल नेहरू ने निभाई थी।
इसका प्रथम अधिवेषन मुम्बई में हुआ था। जिसकी अध्यक्षता रामचन्द्र राव ने की थी।
इसका उद्देष्य देषी रियासतों में शान्तिपूर्वंक तरीके से उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था।
चरखा संघ (1927):-
इसकी स्थापना जमनालाल बजाज ने जयपुर में की थी।
सस्ता साहित्य मण्डल (1925):-
इसकी स्थापना हरिभाऊ उपाध्याय ने अजमेर के हुडी में की थी।
जीवन कुटीर (1927):-
इसकी स्थापना हीरालाल शास्त्री द्वारा जयपुर में की गई थी। वर्तमान में यह निवाई (टोंक) में हैं।
वनस्थली विद्यापीठ (1938):-
इसकी स्थापना हीरालाल शास्त्री द्वारा रतनलाल शास्त्री के साथ मिलकर की गई थी। जीवन कुटीर योजना को ही बाद में वनस्थली विद्यापीठ कहा गया था।
सर्वहितकारिणी सभा (1907):-
इसके संस्थापक कन्हैयालाल ढुढँ थें। सन् 1914 में गोपालदास (बीकानेर) ने इसे पुर्नजिवित किया था।
विद्या प्रचारिणी सभा (1914):-
इसकी स्थापना विजयसिंह पथिक ने की थी।
नागरी प्रचारणी सभा (1934):-
इसकी स्थापना ज्वालाप्रसाद ने धौलपुर में की थी।
नरेन्द्र मण्डल (1921):-
देषी राज्यों के राजाओं द्वारा निर्मित मण्डल जिसके चांसलर बीकानरे के महाराजा गंगासिंह थे।
सेवासंघ (1938):-
इसकी स्थापना भागीलाल पाण्ड्या ने डुंगरपुर में की थी।
स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान प्रकाषित होने वाले पत्र-पत्रिकाएँ व समाचार पत्र
राजस्थान केसरी (1920):-
यह एक साप्ताहिक पत्रिका थी, जिसकी शुरूआत विजयसिंह पथिक ने वर्धा में की थी।
इसके संपादक रामनारायण चैधरी थे। इस पत्रिका के लिए वित्तीय सहायता जमनालाल बजाज ने दी थी।
नवीन राजस्थान (1921):-
यह समाचार पत्र अजमेर से प्रकाषित होता था। इसकी शुरूआत विजयसिंह पथित ने की थी।
यही समाचार पत्र आगे चलकर तरूण राजस्थान समाचार-पत्र के नाम से जाना गया।
बिजौलिया किसान आंदोलन के समय पथिक ने नवीन राजस्थान और राजस्थान केसरी समाचारपत्रों का प्रयोग आंदोलन प्रचार के लिए किया था।
नवज्योति (1936):-
यह अजमेर से प्रकाषित होने वाला साप्ताहिक पत्र था। इसकी स्थापना रामनारायण चैधरी ने की थी।
इसकी बागड़ोर दुर्गाप्रसाद चैधरी ने संभाली थी।
राजस्थान समाचार (1889)ः-
यह अजमेर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक मुंषी समर्थानन थें।
यह प्रथम हिन्दी दैनिक समाचार पत्र था।
आगी बाण (1932):-
यह ब्यावर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक जयनारायण व्यास थें।
राजपूताना गजट:-
यह अजमेर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक मौलवी मुराद अली थे।
अखण्ड भारत:-
यह मुम्बई से प्राषित होता था। इसे संस्थाप जयनारायण व्यास थंे।
सज्जन कीर्ति सुधाकर:-
यह मेवाड़ से प्रकाषित होता था।
राजस्थान टाइम्स:-
यह जयपुर से अंग्रेजी में प्रकाषित समाचार-पत्र था।
प्रताप:-
यह कानपुर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक पथिकजी और गणेष शंकर विद्यार्थी थे।
देरा हितैषी:-
यह समाचार पत्र अजमेर से प्रकाषित होता था।
लोकवाणी:-
यह जयपुर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक पंडित देवीषंकर थे।
यह पत्र जमनालाल बजाज की स्मृति में प्रकाषित किया गया था।
जनजातीय आंदोलन
भगत आंदोलन/गोविन्दगिरी आंदोलन (1883):-
भील, आदिवासी संन्यासियों को भगत कहा जाता था।
यह आंदोलन आदिवासी भील बाहुल्य डुंगरपुर और बांसवाड़ा में हुआ था।
गोविन्दगिरी के द्वारा भीलों में व्याप्त बुराईयों, कुप्रथाओं को दूर करने के लिए एवं भीलों में राजनैतिक चेतना जागृत करने के लिए 1883 में संप (भाईचारा या सम्पत) सभा की स्थापना की एवं धूणी की स्थापना की जहां गोविन्दगिरी ने भीलों को उपदेष दियें।
गोविन्दगिरी दयानन्द सरस्वती की विचारधारा से प्रेरित थे। इन्होने बांसवाड़ा की मानगढ़ की पहाड़ी को अपनी कर्मभूमि बनाया।
7 दिसम्बर, 1908 को हजारों की संख्या में भील इस पहाड़ी पर इकटठे हुए। पुलिस के द्वारा इन पर गोलियां चलाई गई, जिसमंे लगभग 1500 भील मारे गए।
प्रतिवर्ष इस स्थान पर अष्विन शुक्ल पूर्णिमा को मेला भरता हैं।
ब्रिटिष सरकार और रियासत के द्वारा इस आंदोलन को दबा दिया गया।
एकी आंदोलन/भोमट भील आंदोलन (1921-23):-
इस आंदोलन का सुत्रपात मोतीलाल तेजावत ने किया था। इन्हे आदिवासियों का मसीहा कहा जाता हैं।
मोतीलाल तेजावत का जन्म उदयपुर के कोलियार गांव में एक ओसवाल परिवार में हुआ था। इस आंदोलन का प्रमुख कारण भीलों में व्याप्त असंतोष था। असंतोष के कारण निम्न थें:-
भीलों में व्याप्त सामाजिक बुराईयां व उनकी प्रथाओं पर ब्रिटिष सरकार ने रोक लगा दी थी।
तम्बाकू, अफीम और नमक पर करलगाए गए। यदि भील कर नहीं चुकाता तो उसे खेती नहीं करने दी जाती थी।
भीलों से लाभ और बेगार लेने के लिए क्रुरतापूर्वक व्यवहार किया जाता था।
मोतीलाल तेजावत ने सभी भीलों को एकत्रित कर इस आंदोलन का श्रीगणेष 1921 में झाड़ोल और फालसिया से किया था।
1922 में तेजावत ने नीमड़ा गांव में भीलों का एक सम्मेलन बुलाया। जिसकी घेराबंदी ब्रिटिष सरार ने की व अंधाधुंध गेालियां चलाई। निमड़ाकाण्ड को दूसरा जिलयांवाला काण्ड कहते हैं।
तेजावत भूमिगत हो गए। 1929 में मोतीलाल तेजावत ने महात्मा गंाधी की प्रेरणा से पुनः भीलों के लिए कार्य किये और ‘‘वनवासी संघ’’ नामक संस्था की सन् 1936 में स्थापना की।
इस संघ के मुख्य सदस्य मोतीलाल पाण्ड्य (बांगड़ का गांधी), माणिक्यलाल वर्मा और मोतीलाल तेजावत थे।
मीणा आंदोलन (1930)
यह जयपुर रियासत में हुआ।
इसका कारण 1924 में ब्रिटिष सरकार ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट बनाया तथा 1930 में जयपुर राज्य में जरायम पेषा कानून बनाया जिसमें मीणाओं को अपराधी जाति घोषित कर दिया और इन्हें दैनिक रूप से निकटतम थाने में उपस्थिति दर्ज करवाना अनिवार्य कर दिया।
मीणाओं ने इसका विरोध किया और संघर्षं के लिए 1933 मीणा क्षत्रिय महासभा का गठन , मीणा जाति सुधार कमिटी का गठन किया और 1944 में मुनि मगर सागर की अध्यक्षता में नीमका थाना में एक सम्मेलन बुलाया और 1946 में स्त्रियों और बच्चों को इस कानून से मुक्त कर दिया।
28 अक्टूबर, 1946 को बागावास में मीणाओं ने सम्मेलन बुलाया और चैकीदारी के काम से इस्तीफा दे दिया।
आजादी के बाद 1952 में जरायम पेषा कानून पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया गया।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गठित संस्थाए/संघ/संगठन
सभ्य सभा की स्थापना:-
इसकी स्थापना गुरू गोविन्द गिरी ने आदिवासी हितों की सुरक्षा के लिए की थी।
राजस्थान सेवा संघ (1919):-
इस संस्था को 1920 में अजमेर स्थानांतरितकरदिया गया।
राजस्थान सेवा संघ में प्रमुख भूमिका अर्जुनलाल सेठी, विजयसिंह पथिक, केसरीसिंह बारहठ एवं रामनारायण चैधरीने निभाई थी।
राजपुताना मध्य भारत सभा (1919):-
इसकी स्थापना आमेर में जमनालाल बजाज ने की थी। इसमें मुख्य भूमिका अर्जुनलाल सेठी एवं विजयसिंह पथिक ने निभाई थी।
वीर भारत समाज (1910):-
इसकी स्थापना विजयसिंह पथिक ने की थी।
वीर भारत सभा (1910):-
इसकी स्थापना केसरीसिंह बारहठ़ एवं गोपालदास खरवा ने की थी।
जैन वर्द्धमान विद्यालय (1907):-
इसकी स्थापना अर्जुनलाल सेठी ने जयपुर में की थी।
वागड़ सेवा मंदिर एवं हरिजन सेवा समिति (1935):-
इसकी स्थापना भोगीलाल पाण्ड्या ने की थी।
मारवाड़ सेवा संघ (1920):-
इसकी स्थापना चांदमल सुराणा ने की थी।
मारवाड़ सेवा संघ को सन् 1924 में जयनारायण व्यास ने पुनः जीवित किया और एक नई संस्था की स्थापना की जिसे ‘‘मारवाड़ हितकारणी सभा’’ के नाम से जाना गया।
मारवाड़ हितकारणी सभा की स्थापना 1929 में हुई।
अखिल भारतीय देषी राज्य लोक परिषद (1927):-
इसकी स्थापना में मुख्य भूमिका जवाहरलाल नेहरू ने निभाई थी।
इसका प्रथम अधिवेषन मुम्बई में हुआ था। जिसकी अध्यक्षता रामचन्द्र राव ने की थी।
इसका उद्देष्य देषी रियासतों में शान्तिपूर्वंक तरीके से उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था।
चरखा संघ (1927):-
इसकी स्थापना जमनालाल बजाज ने जयपुर में की थी।
सस्ता साहित्य मण्डल (1925):-
इसकी स्थापना हरिभाऊ उपाध्याय ने अजमेर के हुडी में की थी।
जीवन कुटीर (1927):-
इसकी स्थापना हीरालाल शास्त्री द्वारा जयपुर में की गई थी। वर्तमान में यह निवाई (टोंक) में हैं।
वनस्थली विद्यापीठ (1938):-
इसकी स्थापना हीरालाल शास्त्री द्वारा रतनलाल शास्त्री के साथ मिलकर की गई थी। जीवन कुटीर योजना को ही बाद में वनस्थली विद्यापीठ कहा गया था।
सर्वहितकारिणी सभा (1907):-
इसके संस्थापक कन्हैयालाल ढुढँ थें। सन् 1914 में गोपालदास (बीकानेर) ने इसे पुर्नजिवित किया था।
विद्या प्रचारिणी सभा (1914):-
इसकी स्थापना विजयसिंह पथिक ने की थी।
नागरी प्रचारणी सभा (1934):-
इसकी स्थापना ज्वालाप्रसाद ने धौलपुर में की थी।
नरेन्द्र मण्डल (1921):-
देषी राज्यों के राजाओं द्वारा निर्मित मण्डल जिसके चांसलर बीकानरे के महाराजा गंगासिंह थे।
सेवासंघ (1938):-
इसकी स्थापना भागीलाल पाण्ड्या ने डुंगरपुर में की थी।
स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान प्रकाषित होने वाले पत्र-पत्रिकाएँ व समाचार पत्र
राजस्थान केसरी (1920):-
यह एक साप्ताहिक पत्रिका थी, जिसकी शुरूआत विजयसिंह पथिक ने वर्धा में की थी।
इसके संपादक रामनारायण चैधरी थे। इस पत्रिका के लिए वित्तीय सहायता जमनालाल बजाज ने दी थी।
नवीन राजस्थान (1921):-
यह समाचार पत्र अजमेर से प्रकाषित होता था। इसकी शुरूआत विजयसिंह पथित ने की थी।
यही समाचार पत्र आगे चलकर तरूण राजस्थान समाचार-पत्र के नाम से जाना गया।
बिजौलिया किसान आंदोलन के समय पथिक ने नवीन राजस्थान और राजस्थान केसरी समाचारपत्रों का प्रयोग आंदोलन प्रचार के लिए किया था।
नवज्योति (1936):-
यह अजमेर से प्रकाषित होने वाला साप्ताहिक पत्र था। इसकी स्थापना रामनारायण चैधरी ने की थी।
इसकी बागड़ोर दुर्गाप्रसाद चैधरी ने संभाली थी।
राजस्थान समाचार (1889)ः-
यह अजमेर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक मुंषी समर्थानन थें।
यह प्रथम हिन्दी दैनिक समाचार पत्र था।
आगी बाण (1932):-
यह ब्यावर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक जयनारायण व्यास थें।
राजपूताना गजट:-
यह अजमेर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक मौलवी मुराद अली थे।
अखण्ड भारत:-
यह मुम्बई से प्राषित होता था। इसे संस्थाप जयनारायण व्यास थंे।
सज्जन कीर्ति सुधाकर:-
यह मेवाड़ से प्रकाषित होता था।
राजस्थान टाइम्स:-
यह जयपुर से अंग्रेजी में प्रकाषित समाचार-पत्र था।
प्रताप:-
यह कानपुर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक पथिकजी और गणेष शंकर विद्यार्थी थे।
देरा हितैषी:-
यह समाचार पत्र अजमेर से प्रकाषित होता था।
लोकवाणी:-
यह जयपुर से प्रकाषित होता था। इसके संस्थापक पंडित देवीषंकर थे।
यह पत्र जमनालाल बजाज की स्मृति में प्रकाषित किया गया था।
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